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आश्रव भावना स्वरूप
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ७४ से ७८ शुभाशुभ कर्म चारों ओर से खिंचकर आते हैं। इसलिए इनको (योगों को) ही 'आश्रव' कहा
गया।।७४।। व्याख्या :- शरीरधारी आत्मा अपने समस्त आत्मप्रदेशों से मनोयोग्य शुभाशुभ पुद्गल मनन करने के लिए ग्रहण करता है। तथा उसमें अवलंबन करणभाव का लेता है। इसकी अपेक्षा से आत्मा को विशेष पराक्रम करना पड़ता है, उसे मनोयोग कहते हैं। वह मन पंचेन्द्रिय को होता है तथा देहधारी आत्मा वचनयोग से पुदगल ग्रहण कर छोड़ देता है। आत्मा उस वचनत्व से करणता प्राप्त करता है। उक्त वचनकरण के संबंध से आत्मा में बोलने की शक्ति प्राप्त होती है, उसे ही वचनयोग कहते हैं। वह द्वीन्द्रियजीव को होता है। काया का अर्थ है, आत्मा का निवासस्थान। काया के योग से ही जीव में वीर्य-परिणाम उत्पन्न होते हैं, इसे ही काययोग कहते हैं। मन, वचन और काया इन तीनों के संयोग से आत्मा में वीर्य रूप में योग वैसे ही परिणत होता है, जैसे अग्नि के संयोग से इंट आदि लाल रंग वाली बन जाती है। कहा भी है-वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति और सामर्थ्य ये सब शब्द योग के पर्यायवाची है। यह योग दुर्बल या वृद्ध मनुष्य को लट्ठी के सहारे की तरह जीव का उपकारी सहायक है। मन के योग्य पुद्गलों का आत्मप्रदेश में परिणमन होना मनोयोग है; भाषायोग्य पुद्गलों का वचनत्व-वक्तृत्व रूप में परिणमन होना वचनयोग है और काययोग्य पुद्गलों का गमनादि योग्य क्रिया के हेतु रूप में परिणमन होना, काययोग है। यह योग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है। इससे सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म उत्पन्न होते हैं। इस कारण इसे आश्रव कहा है। जिससे आत्मा में कर्मों का आगमन होता रहे, उसे आश्रव कहते हैं। जिससे शुभाशुभ कर्मों का आगमन-आश्रव हो, उसे योग कहा है; क्योंकि इससे तदनुरूप कार्य होता है ।।७४।। इसलिए विवेक से इन्हें शुभ और अशुभकर्म के हेतु बताते हैं।४०१। मैत्र्यादिवासितं चेतः, कर्म सूते शुभात्मकम् । कषाय-विषयाक्रान्तं, वितनोत्यशुभं पुनः ॥७५।। . अर्थ :- मैत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा (माध्यस्थ्य) लक्षण से युक्त चार भावनाओं से भावित मन पुण्य रूप
शुभकर्म उपार्जित करता है। इससे सातावेदनीय, सम्यक्त्व, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभायु, शुभनाम
और शुभगोत्र प्राप्त करता है, जबकि वही मन क्रोधादिकषायों और इंद्रियविषयों से आक्रांत (अभिभूत)
होने पर अशुभकर्म उपार्जित करता है। इससे असातावेदनीय आदि प्राप्त करता है।।७५।। ।४०२। शुभार्जनाय निर्मथ्यं, श्रुतज्ञानाश्रितं वचः । विपरीतं पुनयिं अशुभार्जनहेतवे ॥७६॥ अर्थ :- शभकर्म के उपार्जन के लिए द्वादशांगी गणिपिटक रूप श्रतज्ञान के अनकल वचन बोलने चाहिए। इसके
विपरीत अशुभकर्म के उपार्जन के लिए श्रुतज्ञानविरोधी वचन जानने चाहिए ॥७६।। ।४०३। शरीरेण सुगुप्तेन, शरीरी चिनुते शुभम् । सततारम्भिणा जन्तुघातकेनाऽशुभं पुनः ॥७७॥ अर्थ :- सावद्य-कुचेष्टओं से सुगुस शरीर से शरीरी (जीव) शुभकर्मों का संचय करता है, जबकि सतत आरंभ
में प्रवृत्त रहने वाले या प्राणियों की हिंसा करने वाले शरीर से वही अशुभ कर्मों का संग्रह करता
है।।७७॥ व्याख्या :- सम्यग् रूप से कुप्रवृत्तियों से रक्षित काया की प्रवृत्ति अथवा कायोत्सर्ग आदि की स्थिति में निश्चेष्टा पूर्वक काया की प्रवृत्ति करना काययोग है। ऐसे काययोग से जीव सातावेदनीय आदि शुभ (पुण्य) कर्मों का उपार्जन करता है; जबकि महारंभ या लगातार आरंभ में प्रवृत्त अथवा जीवों के घातक शरीर से जीव असातावेदनीय आदि अशुभ (पाप) कर्मों का उपार्जन करता है निष्कर्ष यह है कि मूल में शुभाशुभ योग से शुभाशुभ कर्म उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार प्रतिपादन करने से कार्य-कारण-भाव में विरोध नहीं आता। 'शुभयोग से शरीर शुभफल का हेतु बनता है', यह बात यहां प्रसंगवश कही गयी है। भावना-प्रकरण में तो अशुभयोग से अशुभ फल का हेतु भी वैराग्य उत्पन्न करने के लिए प्रतिपादन करना चाहिए। इसको कहे बिना भी अशुभहेतुओं का संग्रह कहते हैं ।।७।।
।४०४। कषाया विषया योगाः, प्रमादाऽविरती तथा । मिथ्यात्वमार्त्तरौद्रे, चेत्यशुभप्रतिहेतवः ॥७८।।
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