Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 380
________________ अशुचि भावना एवं आश्रव भावना योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ७२ से ७४ | का भेद भलीभांति हृदयंगम कर लिया है, उसे अपने शरीर पर प्रहार होने पर भी आत्मा में पीड़ा नहीं होती अंतिम | तीर्थंकर परमात्मा श्री महावीर प्रभु पर १२ वर्ष तक बहुत उपसर्ग हुए; संगमदेव ने उन पर कालचक्र फेंका था, ग्वाले | ने उनके पैरों पर खीर पकायी थी; फिर भी देह को आत्मा से भिन्न अनुभव करने वाले प्रभु की आत्मा में दुःख न हुआ। | देह और आत्मा की भिन्नता का ज्ञाता नमिराज था। जब उसकी मिथिला नगरी जल रही थी, तब देवेन्द्र ने उससे कहा| यह तुम्हारी मिथिला जल रही है। तब नमिराजा ने उत्तर दिया- इसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। भेदविज्ञान कर | लेने वाले आत्मा पर यदि पिता-संबंधी दुःख आ पड़े तो भी वह दुःखी नहीं होता। जबकि नौकर पर दुःख आ पड़े | तो उस पर आत्मीयता - ममता होने से अपना मान लेने के कारण दुःख होता है। 'पुत्र भी अपना नहीं पराया है' यह | जानकर सेवक को स्वकीय रूप में स्वीकार करता है, तब उस पर पुत्रादि से अधिक प्रीति होती है। राजभंडारी पराये | धन को अलग बांधकर रखता है, उसी तरह 'परपदार्थ में ममत्त्वबुद्धि रखने वाले भव्यात्मन! तुम इस बात का विवेक करो और मिथ्याभावना का परित्यागकर ममत्त्वछेदिनी अन्यत्वभावना का लगातार अवलंबन लो। इस प्रकार अन्यत्वभावना पूर्ण हुई । ७१ ।। अब अशुचिभावना के संबंध में कहते हैं | | ३९८। रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रान्तवर्चसाम् । अशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत् कुत: ? ।। ७२ ।। अर्थ :- आहार करने के बाद उसका रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से चर्बी, चर्बी से मेद और मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा, मज्जा से वीर्य और वीर्य से आंतें और आंतों से विष्ठा बनती है। इस प्रकार यह शरीर अशुचि (गंदे) पदार्थों का भाजन है, तब फिर यह काया पवित्र कहां से हो सकती है? ।। ७२ ।। जो काया को पवित्र मानते हैं, उन्हें उपालंभ देते हुए कहते हैं अर्थ : ।३९९। नवस्रोतः श्रवदविस्ररसनिः स्यन्दपिच्छिले । देहेऽपि शौचसङ्कल्पो महन्मोहविजृम्भितम् ॥७३|| दो नेत्र, दो कान, दो नाक के नथुने, मुख, गुदा और लिंग; ये पुरुष के शरीर में नौ द्वार एवं स्त्री के बारह द्वार है, इनमें से निरंतर झरती रहती गंदगी (बदबूदार घिनौनी चीज) से देह लिपटा रहता है। ऐसे घिनौने शरीर के बारे में भी पवित्रता की कल्पना करना, महामोह की ही विडंबना है ।। ७३ ।। इसके संबंध में अंकित आंतरश्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं - वीर्य और रज से उत्पन्न होने वाला; मल के | रस से बढ़ने वाला और गर्भ में जरायु (पतली चमड़ी की झिल्ली) से ढका हुआ यह शरीर कैसे पवित्र हो सकता है ? | माता के खाये हुए अन्न, जल, पेयपदार्थ से उत्पन्न, रसनाड़ी द्वारा बहकर आये हुए उस रस को पी-पीकर संवर्धित; | इस शरीर को कौन पवित्र मानेगा ? अशुचिदोष एवं धातुओं के मल से व्याप्त, कृमि, केंचुआ आदि के स्थान रूप से रोग | रूपी सर्प जिसके चारों ओर लिपटे हुए हैं, ऐसे शरीर को कौन पवित्र कह सकता है? विलेपन करने के लिए अंगर, कपूर, चंदन, कक्कोल, कस्तूरी आदि सुगंधित पदार्थ घिसकर लगाये हों, वे भी कुछ देर बाद मलिन हो जाते हैं, तब इस शरीर में शुद्धता कैसे हो सकती है? सुगंधित तांबूल (पान) मुंह में दबाकर रात को सो जाये और प्रातःकाल जागने के बाद | सूंघे तो मुंह में से बदबू निकलती है, तो फिर इस शरीर को कैसे शुद्ध माना जाये ? स्वभाव से सुगंधित गंध, धूप, फूलों की माला आदि चीजें भी शरीर के संपर्क से दुर्गंधमय बन जाती है; तब इस शरीर को पवित्र कैसे कहा जाय? शराब के गंदे घड़े के समान इस शरीर पर सैकड़ों बार तेलमालिश करने या विलेपन करने पर अथवा करोड़ों घड़ों से इसे धोने | पर भी यह पवित्र नहीं हो सकता। जो लोग कहते हैं कि मिट्टी, पानी, हवा, सूर्य किरण आदि से शरीर की शुद्धि हो | जाती है, उन्हें लकीर के फकीर समझने चाहिए। यह बात तो ठोक-पीटकर वैद्यराज बनाने के समान है। मद, अभिमान | और काम के दोषों को दूर करने वाला साधक शरीर के प्रति अशुचिभावना द्वारा ही निर्ममत्व के महाभार को उठाने में समर्थ हो सकता है। अधिक क्या लिखें? बस, यही अशुचिभावना है ।।७३।। अब आस्रवभावना का स्वरूप बताते हैं ।४००। मनोवाक्कायकर्माणि, योगाः कर्मशुभाशुभम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः ॥७४॥ मन, वचन और काया के व्यापार ( प्रवृत्ति या क्रिया) योग कहलाते हैं। इन योगों के द्वारा ही जीवों में अर्थ : 358

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