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एकत्व भावना
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ६८ हो, तब तीक्ष्ण क्रोध-शल्य के अधीन होकर निरंतर मन में दुःखी होता रहता है कि मैंने पूर्वजन्म में कोई सुकृत नहीं किया, जिससे यहां मैं दूसरों का आज्ञापालक सेवक देव बना हूं। दूसरों की अधिकाधिक समृद्धि देखकर सारी जिंदगीभर देव ईर्ष्या की आग में जलता रहता है। दूसरे से लुट गया हो, सारी समृद्धि खो दी हो, तब दीनवृत्ति धारण करके 'हे प्राणेश! हे प्रभो! हे देव! मुझ पर प्रसन्न हो; इस पर गद्गद स्वर से पुकारता है। कान्दर्पिक आदि देवों को पुण्ययोग से भले ही स्वर्ग प्राप्त हुआ हो, लेकिन वहां भी वे काम, क्रोध और भय से पीड़ित रहते हैं, वे अपना असली स्थान नहीं पाते। देवलोक से च्युत होने का चिह्न देखकर देव विलाप करता है कि पता नहीं, अब यहां से च्युत होने के बाद किसके गर्भ में स्थान मिलेगा? इस तरह कल्पवृक्ष की कभी न मुझाने वाली पुष्पमाला के मुाने के साथ ही देवों का मुखकमल मुर्हा जाता है। हृदय के साथ-साथ सारा शरीर का ढांचा शिथिल हो जाता है और महाबली से भी कंपित न होने वाला कल्पवृक्ष भी कांपने लगता है। स्वीकृत प्रिया के साथ मानो अकाल में शोभा और लज्जा ने साथ-साथ अपराध किया हो. इस तरह देवी देव को अपराधी जानकर छोडकर चली जाती है। वस्त्रों की निर्मल शोभा भी क्षणभर में फीकी पड़ जाती है। आकाश में अकस्मात् मेघाडंबर होने से जैसे वह श्याम हो जाता है, वैसे देव का चेहरा पाप से श्याह और निस्तेज हो जाता है। जो अब तक दीनता रहित थे, वे दीन बन जाते हैं, निद्रा हीन थे, वे निद्रित हो गये हो वैसे लगते हैं। मौत के समय जैसे चींटियों के पंख आ जाते हैं, वैसे ही च्यवन के समय देवों को भी दीनता और निद्रा आकर घेर लेती है; न्यायधर्म का अतिक्रमण करके विषयों में वह अत्यधिक आसक्त हो जाता है और यत से कुपथ्य-सेवन भी करना चाहता है। भविष्य में दुर्गति होगी, यह जानकर उसकी वेदना से विवश होने से निरोग होने पर भी उसके सभी अंग-प्रत्यंगों के जोड़ टूटने लगते हैं। पदार्थ को झटपट समझने में पटु बुद्धि भी सहसा चली जाती है। अब तो वह दूसरे के वैभव का उत्कर्ष देखने में भी असमर्थ हो जाता है। निकट भविष्य में ही गर्भावास का दुःख
आ पड़ने वाला है, इस भय से वह सिहर उठता है, अपने अंगों को कंपाकर दूसरों को डराता है। अपने च्यवन के |निश्चित आसार जानकर विमान, नंदनवन या बावड़ी आदि में किसी में भी रुचि नहीं रखता। वे उसे आग के आलिंगन | के समान लगने लगते हैं। वह रात-दिन यही विलाप करता रहता है-अरी प्रिये! हाय! मेरे विमान! अरे! मेरी बावड़ी!, ओह! कल्पवृक्ष! मेरा देवत्व समाप्त होने के बाद फिर कब मैं तुम्हें देखूगा? अहा! अमृतरस के समान तुम्हारा हास्य!, ओह! अमृततुल्य लाल-लाल होठ! अहो! अमृतसम झरने वाली वाणी! हा! अमृतवल्लभा, हाय! रत्नजटित स्तंभ! हाय! मणिमय स्पर्श, ओफ! रत्नमयवेदिका! अब तुम किसका आश्रय लोगे? हाय! रत्नमय सोपानों वाली कमलों और उत्पलों से सुशोभित यह बावड़ी किसके काम आयेगी? हे पारिजात! हे मंदार! हे संतान! हे हरिचंदन! हे कल्पवृक्ष! क्या तुम सब मुझे छोड़ दोगे? अरे रे! क्या मुझे अब स्त्री के गर्भावास रूप नरक में पराधीनता में वास करना होगा? हाय! वहां भी क्या बार-बार अशुचिरस का आस्वादन करना पड़ेगा? क्या मुझे अपने किये कर्मों के अनुसार जठराग्नि के चूल्हे में अपने को सेकने का दुःख उठाना पड़ेगा? कहां ये रतिनिधान-सी देवांगनाएँ और कहां वे अशुचि झरती हुई बीभत्स मानुषी स्त्री? इस प्रकार वह देव देवलोक की वस्तुओं को याद कर-करके झूरता रहता है और यों विलाप करते-करते ही अचानक क्षणभर में उसका जीवनदीप बुझ जाता है ।।६७।।
इस प्रकार चारों गतियों में स्थित संसारी प्राणियों को इस संसार में जरा भी सुख नहीं है; इतना ही नहीं, सिर्फ शारीरिक और मानसिक दुःख भी बहुत अधिक है। ऐसा समझकर यदि तुम भवभ्रमण के भय से सदा के लिए मुक्त होना चाहते हो तो ममता को दूरकर सतत शुद्धाशयपूर्वक संसार भावना का ध्यान करो। इस प्रकार संसारभावना पूर्ण हुई।
अब दो श्लोकों द्वारा एकत्वभावना का प्रतिपादन करते हैं।३९४। एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते । कर्माण्यनुभवत्येकः, प्रचितानि भवान्तरे ॥६८॥ अर्थ :- यह जीव अकेला असहाय ही उत्पन्न होता है और अकेला ही शरीर छोड़कर मर जाता है तथा जन्म
जन्मांतर में संचित्त कर्मों को भी यह अकेला ही भोगता है ।।८।। श्री भगवान् ने कहा है-परलोक में किये हुए कर्म इस लोक में भोगने पड़ते हैं; वैसे ही इस लोक में किये हुए कर्म इस लोक में भी भोगे जाते हैं।
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