Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 379
________________ अन्यत्व भावना • योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ६९ से ७१ ।३९५। अन्यैस्तेनार्जितं वित्तं, भूयः सम्भूयः भुज्यते । स त्वेको नरकक्रोडे, क्लिश्यते निजकर्मभिः।।६९।। अर्थ :- उसके द्वारा महारंभ और महापरिग्रह आदि उपायों से अर्जित धन का उपभोग दूसरे - बंधु-बांधव, कुटुंब परिवार, नौकर आदि मिलकर करते हैं। परंतु वह धन का उपार्जन करने वाला तो अकेला ही अपने दुष्कर्मों से नरक की गोद में जाकर महादुःख भोगता है ।।९।। व्याख्या :- इसके संबंध में उक्त आंतरश्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं-दुःख रूपी दावानल से भयंकर विशालसंसार रूपी अरण्य में कर्माधीन होकर यह आत्मा अकेला ही परिभ्रमण करता है। बंधु, बांधव, स्वजन आदि कोई भी जीव के सहायक या हिस्सेदार नहीं होते। प्रश्न होता है-सुख-दुःख का अनुभव करने वाली यह काया तो | सहायक होगी न? इसके उत्तर में कहते हैं-नहीं; यह काया पूर्वभव से ही साथ नहीं आयी और न जन्मांतर में साथ | जायेगी; फिर वह कैसे सहायक हो सकती है? तुम्हारी यह मान्यता भी यथार्थ नहीं है कि जीव के धर्म और अधर्म ये दो ही सहायक हैं। क्योंकि मोक्ष में धर्म या अधर्म की सहायता नहीं है। इसलिए शुभाशुभकर्म करता हुआ जीव अकेला ही संसार में परिभ्रमण करता है; और उन कर्मों के अनरूप शभाशभ फल भोगता है तथा अनत्तर मोक्षलक्ष्मी को भी अकेला ही प्राप्त करता है। वहां किसी भी प्रकार के संबंधी का संबंध नहीं होता और न काम आता है। अतः संसार | में होने वाले दुःखों को तथा मोक्ष में प्राप्त होने वाले सुखों को वह अकेला ही भोगता है, उसमें किसी की सहायता या हिस्सेदारी नहीं होती। तैराक अकेला हो तो भी वह बड़े से बड़े समुद्र को शीघ्र पार कर सकता है, परंतु छाती, हाथ, पैर आदि इकट्ठे बांध ले या अन्य कोई परिग्रह साथ में रखे तो वह पार नहीं हो सकता। इसलिए धन, शरीर आदि से (ममत्व से) विमुख होकर ही एकाकी स्वस्थ आत्मा संसारसमुद्र से पार हो सकता है। पाप करने से जीव अकेला ही नरक में जाता है, इसी प्रकार पुण्य करने से भी अकेला स्वर्ग में जाता है और पाप-पुण्य दोनों का क्षय करके अकेला ही मोक्ष में जाता है। ऐसा समझकर निर्ममत्व प्राप्ति के लिए दीर्घकाल तक एकत्वभावना का ध्यान करना चाहिए। इति एकत्वभावना ।।६९।। अब अन्यत्वभावना का स्वरूप बताते हैं।।३९६। यत्राऽन्यत्वं शरीरस्य, वैसादृश्याच्छरीरिणः । धन-बन्धु-सहायानां, तत्राऽन्यत्वं न दुर्वचम् ॥७०।। अर्थ :- जहां आत्मा और शरीर आधार-आधेय, अरूपी-रूपी, चेतन-अचेतन (जड़), नित्य-अनित्य है; तथा शरीर जन्मांतर में साथ नहीं जाता है, जबकि आत्मा जन्मांतर में भी साथ रहता है। इससे शरीर और शरीरी (आत्मा) की भिन्नता-विसदृशता स्पष्ट प्रतीत होती है, तब फिर वहां यह कहना असत्य नहीं है कि धन, बंधु, माता-पिता, मित्र, सेवक, पत्नी-पुत्र आदि तथाकथित सहायक (आत्मा से) भिन्न हैं।६७॥ भावार्थ :- जब आत्मा से शरीर को भिन्न स्वीकारकर लिया है तो धनादि पदार्थों को, (जो प्रायः शरीर से | संबंधित हैं) भिन्न मानने में कौन-सी आपत्ति है? अन्यत्वभावना का फल सिर्फ निर्ममत्व है, इतना ही नहीं और भी फल है; उसे बताते हैं||३९७। यो देह-धन-बन्धुभ्यो, भिन्नमात्मानमीक्षते। क्व शोकशङ्कुना, तस्य हन्तातङ्कः प्रतन्यते?॥७१।। अर्थ :- जो अपनी आत्मा को शरीर, धन, स्वजन, बंधु आदि से भिन्न स्वरूप में देखता है, उसका आत्मा वियोग | जनित शोक रूपी कील से भला कैसे आतंकित-पीड़ित हो सकता है? ॥७१।। व्याख्या :- इस विषय में प्रयुक्त आंतरश्लोकों का भावार्थ दे रहे हैं-अन्यत्व का अर्थ है भिन्नता। वह भिन्नता आत्मा और शरीर, धन, स्वजन आदि के बीच में स्पष्ट प्रतीत होती है। यहां शंका होती है कि देहादि पदार्थ इंद्रियों से जाने जा सकते हैं, जबकि आत्मा तो अनुभव का विषय है, तब फिर इनका एकत्व हो ही कैसे सकता है? इस प्रकार जब आत्मा और शरीर आदि पदार्थों का भिन्नत्व स्पष्ट है, तब शरीर पर प्रहार करने पर आत्मा को उसकी पीड़ा क्यों महसूस होती है? इसका समाधान यों है-जिस व्यक्ति को आत्मा और शरीरादि में भेदबुद्धि नहीं है; जो इन दोनों को एक ही मानता है, उसके शरीर पर प्रहार करने से आत्मा को अवश्य पीड़ा होती है, लेकिन जिसने शरीर और आत्मा 357

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