Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 389
________________ अभ्यंतर तप की व्याख्या योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ९० ७. छेद - तपस्या से काबू में न आ सके, ऐसे उइंड शिष्य का दीक्षापर्याय ५ दिनरात के क्रम से काट देना छेदप्रायश्चित्त है। ८. मूल - महाव्रतों को मूल से वापिस देना। ९. अनवस्थाप्य - अतिदुष्टपरिणामी साधु विशेष तप नहीं करता हो, तब उसे पुनः व्रत देने, उससे इतना तप कराना कि वह स्वयं उठने-बैठने में भी अशक्त बन जाय। उसे वहां तक तप कराने के बाद जब वह दूसरे साधु से प्रार्थना करे-आर्य! मुझे खड़ा होना है, तब वह साधु उस प्रायश्चित्ती साधु से बात किये बिना चुपचाप उसका कार्य कर दे। कहा भी है-मझे खडा करो. बिठा दो. भिक्षा ला दो। पात्र-प्रतिलेखन कर दो; यों वह प्रायश्चित्ती क बांधव के समान दूसरा साधु मौनपूर्वक (बिना बोले) उसका कार्यकर दे। (व्यवहार भाष्य १/३६८) इतना तप कर ले, तब उसे बड़ी दीक्षा देनी चाहिए। १०. पारांचिक - प्रायश्चित्त से काम न हो अथवा उस आखिरी प्रायश्चित्त से बढ़कर-आगे प्रायश्चित्त न हो अथवा अपराध का अंतिम स्थान प्राप्त कर लिया हो, उस प्रायश्चित्त को पारांचिक कहते हैं। ऐसे बड़े अपराध करने वाले का वेष से, कुल से, गण से अथवा संघ से बहिष्कार करना। पूर्वाचार्यों ने इस १० प्रायश्चित्तों में से छेद तक के प्रायश्चित्त को घाव की चिकित्सा के समान कहा है। इसमें बहुत ही छोटे शल्य-छोटे फांस बाहर निकाले जा सकते हैं, जो शरीर में रक्त तक न पहुंचे हो, केवल चमड़ी के साथ लगे हों; वैसे ही.कई छोटे-अपराध (फांस की तरह) प्रायश्चित्त के द्वारा झटपट निकाले (मिटाये) जा सकते हैं। यदि वहां छिद्र पड़ गया हो तो मर्दन करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि शल्य अल्प होने से छिद्र भी अल्प होता है। दूसरा शल्य ऐसा है कि (फांस) बाहर निकाल दे तो छिद्र का मर्दन करना होता है, परंतु कान के मैल से छिद्र भरने की जरूरत नहीं है। तीसरे प्रकार का शल्य अधिक गहरा हो गया हो तो उसे बाहर निकाल देने के बाद शल्य-स्थान का मर्दनकर उसमें कान का मैल भर दिया जाता है। चौथे प्रकार का शल्य ऐसा है, जिसे खिंचकर बाहर निकाला जाता है, मर्दन किया जाता है और वेदना दूर करने के लिए खून भी दबाकर बाहर निकाल दिया जाता है। पाँचवें प्रकार का शल्य ऐसा है,जो अत्यंत गहरा घुस गया है, उसे निकालने के लिए आने जाने, चलने आदि की क्रिया बंद की जाती है; छट्ठा शल्य ऐसा है, जिसे खींचकर निकालने के बाद केवल हित, मित, पथ्यकर भोजन किया जाता है, या निराहार रहना पड़ता है। सातवें प्रकार का शल्य ऐसा है, जिसके खींचकर निकालने के बाद उस 1. मांस आदि दषित हो गये हों: वहां तक उसका छेदन कर दिया-गोद दिया जाता है। यदि सर्प, गोह आदि जहरीले जानवर ने काट खाया हो अथवा दाद, खाज आदि रोग हो गया हो तथा पहले बताये हुए उपाय से भी पीड़ा न मिटती हो, बल्कि और अधिक बढ़ रही हो तो, शेष अंगों की रक्षा के लिए हड्डी सहित अंग को काट डाला जाता है। इस प्रकार द्रव्यव्रण (बाह्य घाव) के दृष्टांत से मूलगुण-उत्तरगुण रूप चारित्र-शरीर में हुए अपराध रूपी घाव या छिद्र होने पर उसकी चिकित्सा शुद्धि आलोचना से लेकर छेद तक की प्रायश्चित्तविधि से करनी चाहिए। पूज्य आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने कहा है-पहला शल्य ऐसा है, जो इतना नोकदार नहीं है, खून तक नहीं पहुंचा है, केवल चमड़ी तक ही लगा है, तो उसे खींचकर निकाल दिया जाता है, घाव इतना गहरा नहीं होता कि उस पर मर्दन करना पड़े। दूसरा शल्य खींचकर मर्दन किया जाता है; कांटा (शल्य) अगर और अधिक गहरा चला गया हो तो ऐसे शल्य को बाहर निकालकर उस जगह को मर्दनकर दे और छिद्र में कान का मैल भर दे। चौथे प्रकार के शल्य को खींचने के बाद पीड़ा न हो, इसके लिए उस जगह को दबाकर खून निकाल दिया जाता है। पांचवें प्रकार का शल्य ऐसा है, जो अत्यंत गहरा चला जाता है, तो उसे निकालना हो तो हलनचलन की क्रिया बंद की जाती है। छठे शल्य को निकालने के बाद घाव को मिलाने के लिए हित, मित, पथ्यकर भोजन किया जाता है अथवा भोजन करना बंद कर दिया जाता है। सातवें प्रकार का शल्य ऐसा होता है कि उसे लगने के बाद अंग का जितना भाग सड़ जाता है या बिगड़ जाता है, वहां के मांस को काट दिया जाता है। परंतु इतने पर भी पीड़ा या बीमारी आगे बढ़ती हुई न रुके या सर्प आदि | जहरीले जंतु ने काटा हो या खुजली या सड़ान वाला रोग हो गया हो तो शेष अंग की रक्षा के लिए हड्डीसहित उस अंग को काटना पड़ता है। शरीर में इन आठ प्रकार के शल्यों की तरह मूलगुण-उत्तरगुण रूप परम चारित्र पुरुष के 367

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