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मनुष्य एवं देवगति के दुःख
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ६७ | या गोह आदि खा जाते हैं। पंचेन्द्रिय जलचर जीव प्रायः एक दूसरे को निगल जाते हैं। मत्स्यगलागल न्याय प्रसिद्ध है। समुद्र में बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। जल में मछुए जाल डालकर पकड़ लेते हैं, बगुले खा जाते हैं, कई चमड़ी उधेड़कर उसके मांस को पकाकर खा जाते हैं, कई चर्बी के लिए प्राणी को मारकर उसकी चर्बी निकाल लेते हैं; स्थलचर में उत्पन्न होने वाले निर्बल हिरन आदि को बलवान मांसलोलुप सिंह, चीता, भेड़िया आदि खा जाते हैं; शिकारी, बहेलिए, शिकार के शौकीन या मांसलोलुप या क्रीड़ारसिक लोग कई जीवों की हिंसा करते हैं। बेचारे स्थलचर पशुओं को भूख, प्यास, ठंड, गर्मी, अतिभारवहन, मार सहना, चाबुक, अंकुश आदि की फटकार सहना ये | और इस प्रकार की वेदनाएँ सहनी पडती है। आकाश में उड़ने वाले पक्षी तोता, कबूतर, चील, चिड़िया, तीतर आदि को बाज,, गिध, बिल्ली आदि मांसभक्षी प्राणी खा जाते हैं। मांसलोलुप कसाई, शिकारी आदि विविध उपायों से अनेक प्रकार की यातनाएँ देकर उन्हें पकड़ते हैं और मार डालते हैं। बेचारे तिर्यंचों को पानी, आग, शस्त्र आदि का भय तो | हमेशा बना रहता है। कई बार बंधे हुए व पराधीन होने से विवश होकर मर जाते हैं। उनके अपने-अपने कर्म - बंधनों के कारण होने वाले कितने दुःखों का वर्णन करें?
मनुष्य गति के दुःख - मनुष्यजीवन में अनार्यदेश में जन्म लेकर मनुष्य इतने पापकर्म करता है, जिनका कथन भी अशक्य है । आर्यदेश में जन्म लेकर भी बहुत-से चांडाल म्लेच्छ, भंगी, कसाई, वेश्या आदि बनकर अनेक पापों का उपार्जन करते हैं और दुःखानुभव करते हैं। आर्यवंश में जन्म लेने वाले भी अनार्यों की-सी चेष्टा करके दुःख, | दारिद्य और दौर्भाग्य की ज्वाला में जलकर दुःख भोगते हैं। दूसरों के पास अधिक संपत्ति और अपने पास कम संपत्ति | देख-देखकर या दूसरों की गुलामी, नौकरी आदि करके मन में कुढ़ता हुआ आदमी दुःखी होकर जीता है। रोग, बुढ़ापा, मृत्यु, प्रियजनवियोग आदि दुःखों से घिरा रहकर अथवा नीचकर्म करने से बदनाम होकर मनुष्य दयनीय और दुःखी | हालत में जीता है। बुढ़ापा, रोग, मृत्यु या गुलामी में उतना दुःख नहीं है, जितना नरकावास या गर्भावास में है। योनियंत्र में से जब जीव बाहर निकलता है, उस समय जो दुःखानुभव होता है, वह वस्तुतः गर्भवास के दुःख से भी अनंतना ज्यादा होता है। बचपन में मनुष्य मल-मूत्र में लिपटा रहता है, उसी में खेलता रहता है, जवानी में मैथुनचेष्टा करता है और बुढ़ापे में श्वासरोग, दम, खांसी आदि रोगों से ग्रस्त रहता है-इसे शर्म नहीं आती; जब कि पुरुष बाल्यकाल | में विष्ठा खाने वाले सूअर - सा, जवानी में मदन के गधे-सा और बुढ़ापे में बूढ़े बैल-सा बनकर पुरुष रूप में नहीं रहता। मनुष्य बचपन में माता का, यौवन में युवती का और बुढ़ापे में पुत्रादि का मुख देखता है, मगर अंतर्मुख - आत्मसम्मुख | नहीं देखता । धन की आशा में व्याकुल मनुष्य खेती, नौकरी, व्यापार, पशुपालन आदि कार्यों में रचा-पचा रहकर अपने | जीवन को व्यर्थ खो देता है। कभी चोरी करता है, कभी जुआ खेलता है, किसी समय नीच के साथ दुष्टता करता है। | इस प्रकार मनुष्य बार-बार संसार में परिभ्रमण के कारणों को अपनाता है। मोहांध मनुष्य सुखी हालत में कामभोगों में और दुःखी हालत में दैन्य और रुदन करने में ही अपना जीवन समाप्त कर देता है परंतु उसे धर्मकार्य नहीं सूझता । | मतलब यह है कि अनंत कर्मसमूह को क्षय करने में समर्थ आत्मा मनुष्यत्व प्राप्त करके भी पापकर्म करके पापी बनता | है। ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूपी रत्नत्रय का आधारभूत मानव शरीर प्राप्त करके सोने के बर्तन में शराब भरने की तरह इसे | पापकर्म से परिपूर्ण करता है। संसार समुद्र में स्थित जीव को किसी तरह बड़ी मुश्किल से मणिकांचनसंयोग की तरह | चिंतामणि रत्न से भी बढ़कर बहुमूल्य मानव जीवन मिला है, लेकिन वह कौआ उड़ाने के लिए रत्न को फेंकने के समान | अपने कींमती जीवन को खो देता है। स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति का असाधारण कारण रूप यह मनुष्यत्व प्राप्त होने पर भी मनुष्य नरक-प्राप्ति के उपायभूत कार्यों को करने में जुटा रहता है। अनुत्तरविमानवासी देवता भी जिस मनुष्यगति को पाने के लिए प्रयत्न पूर्वक लालायित रहते हैं, उस मानवजीवन को पाकर भी पापी मनुष्य उसका पाप में उपयोग करता है। नरक के दुःख तो परोक्ष है, परंतु जन्ममरण के दुःख तो प्रत्यक्ष है, उनका विस्तृत वर्णन कहाँ तक करें ! देवगति के दुःख - शोक, क्रोध, विषाद, ईर्ष्या, दैन्य आदि के वशीभूत बुद्धिशाली देवों में भी दुःख का साम्राज्य | चल रहा है। दूसरे की महान समृद्धि देखकर अपने द्वारा पूर्वजन्म में उपार्जित अल्प सुकृत को जानकर देव चिरकाल | तक उसके लिए शोक करता है। दूसरा बलवान देव उसके पीछे पड़ा हो और वह प्रतीकार करने में असमर्थ हो गया
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