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संसार भावना, नरकगति के दुःख
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ६६ से ६७ है, जो प्रजापति था, वह कीट के रूप जन्म लेता है। आश्चर्य है संसार की इस विचित्रता को देखकर ! परमार्थदृष्टि | से तो उसका आत्मा का रूप इस प्रकार का नहीं है ।।६५ ।।
। ३९२। न याति कतमां योनिं कतमां वा न मुञ्चति । संसारी कर्मसम्बन्धादवक्रयकुटीमिव ॥६६ ||
अर्थ :- संसार में परिभ्रमण करता हुआ जीव कर्म के संयोग से किराये की कुटिया के समान किस योनि में नहीं जाता और किस योनि को नहीं छोड़ता ? ||६६ ।।
भावार्थ :- मतलब यह है कि जीव समस्त योनियों में जन्म लेता है और मरता है। इस संसार में एकेन्द्रिय से | पंचेन्द्रिय तक की ८४ लाख जीवयोनियों में से ऐसी कोई योनि नहीं, जहां संसारी जीव न गया हो अथवा जिस योनि को न छोड़ा हो। जैसे गृहस्थ किराये पर कोई झोंपड़ी लेता है और जरूरत न होने पर उसे छोड़ देता है, वैसे ही संसारीजीव को कर्मों के संबंध से शरीर भी कुछ अर्से तक मिलता है, किन्तु कर्म भोगने के बाद उस योनि को छोड़ | देता है और दूसरी योनि ग्रहण कर लेता है। समय पाकर उस योनि को भी छोड़ देता है । किन्तु किसी एक नियत योनि | को पकड़े नहीं रखता । । ६६ ।।
| | ३९२ । समस्तलोकाकाशेऽपि, नानारूपैः स्वकर्मतः । वालाग्रमपि तन्नास्ति, यन्न स्पृष्टं शरीरिभिः ॥६७॥
अर्थ :- समग्र लोकाकाश में बाल की नोक पर आये, इतना स्थान भी नहीं बचा है; जिसे शरीरधारियों ने अपने विविध कर्मों के उदय से नाना रूप में जन्म-मरण पाकर स्पर्श न किया हो ||६७||
व्याख्या : - आकाश दो प्रकार का है-लोकाकाश और अलोकाकाश। जिसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश काल, पुद्गल और जीव ये ६ द्रव्य विद्यमान हो, उसे लोकाकाश और जिसमें ये न हों, उसे अलोकाकाश कहते हैं। कहा भी है- धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की प्रवृत्ति जिस क्षेत्र में हो, उस द्रव्यसहित क्षेत्र को लोक और इससे विपरीत हो, उसे अलोक कहते हैं। सूक्ष्म, बादर, साधारण और प्रत्येक रूप एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं | पंचेन्द्रिय आदि भिन्न-भिन्न इंद्रियों वाले जीवों में संसारीजीव अपने-अपने कर्मानुसार स्वतः जन्म-मरण करते रहते हैं; | इसमें ईश्वर आदि की कोई प्रेरणा नहीं है। अन्य दार्शनिकों ने कहा- यह अज्ञानी जीव अपने सुख-दुःख रूप कर्म-फल को स्वयं भोगने में असमर्थ होता है, इसलिए वह ईश्वर से प्रेरित होकर स्वर्ग या नरक में जाता है। इसमें ईश्वर की प्रेरणा | और कर्मों की फलनिरपेक्षता माने तो विश्व के इन विविध रूपों का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं रहता। अगर इन्हें कर्मसापेक्ष माने तो ईश्वर की अस्वतंत्रता तथा निष्फलता सिद्ध होती है। इसलिए स्वर्गनरकादिगमन में प्रेरक कर्म ही है; इसके लिए | ईश्वर को बीच में डालने की क्या आवश्यकता है? जैसा कि वीतरागस्तोत्र में हमने कहा है- कर्मफल भुगवाने की अपेक्षा | से यदि ईश्वर को माना जाय तो वह हमारे समान स्वतंत्र सिद्ध नहीं होगा और कर्म के कारण से ही जगत् की विचित्रता | माने तो फिर निष्क्रिय (नपुंसक) ईश्वर को बीच में रखने से क्या प्रयोजन ?
इस संबंध में यहां कुछ आंतरश्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं
नरकगति के दुःख - कर्मों के कारण पीड़ित संसारी जीवों के ल्स्तै का स्थान नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव चार
| गति रूप है। इनमें से जिसमें सबसे अधिक प्रकट रूप में दुःख भोगना पड़ता हैं, उसे नरकगति कहते हैं। नरकात है। पहले के तीन नरकों में उष्णवेदना होती है। चौथे नरक में शीतोष्ण वेदना और शेष तीन नरकों में शीतवेदना होती | है। इस प्रकार नरकजीवों को क्षेत्र के अनुसार वेदना (दुःख) होती है। जहां उष्ण और शीत वेदना होती है, उन नरकों में यदि लोहे का पर्वत टूटकर पड़े तो नीचे धरती तक पहुंचने से पहले ही वह पिघल जाता है, अथवा जम जाता है या बिखर जाता है। नरक के जीव परस्पर पिछले वैरभाव को कुरेद- कुरेदकर एक दूसरे को दुःखी करते रहते हैं अथवा | परमाधार्मिक देवों द्वारा उन्हें दुःख मिलता है। नारकजीव तीनों प्रकार के दुःखों को बारबार भोगता हुआ नारकीय पृथ्वी | पर निवास करता है। नारकजीव कुंभीपाक में उत्पन्न होता है, फिर परमाधार्मिक असुर छोटे-से सुराख के समान द्वार में से लोहे की सलाई की तरह जबर्दस्ती खींचकर उसे बाहर निकालते हैं। जैसे धोबी शिला पर कपड़े को पछाड़ता है, वैसे ही परमाधार्मिक नारकीयजीवों के हाथपैर आदि पकड़कर वज्रयुक्त कांटों वाली शिला पर उसे पछाड़ते हैं। जैसे करौत सी लकड़ी चीरी जाती है, वैसे ही नारकों को असुर भयंकर करौत से चीरते हैं। जैसे कोल्हू में तिल पीसे जाते
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