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अशरण एवं संसार भावना
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ६३ से ६५
अर्थ :
| | ३८९ । शोचन्ति स्वजनानन्तं, नीयमानान् स्वकर्मभिः । नेष्यमाण तु शोचन्ति, नात्मानं मूढबुद्धयः ॥६३॥ मूढ़बुद्धि लोग अपने कर्मों के द्वारा मृत्यु के द्वार पर ले जाये जाते हुए स्वजनों के लिए शोक करते हैं; परंतु वे मूर्ख यों सोचकर अपने लिये शोक नहीं करते कि हम भी भविष्य में एक दिन मौत का शिकार बन जायेंगे || ६३||
अब अशरणभावना का उपसंहार करते हैं
। ३९०। संसारे दुःखदावाग्नि- ज्वलज्ज्वालाकरालिते । वने मृगार्भकस्येव, शरणं नास्ति देहिनः ||६४|| अर्थ :- वन में सिंह का आक्रमण होने पर हिरने के बच्चे को कोई भी बचा नहीं सकता; इसी प्रकार दुःख रूपी दावाग्नि की जाज्वल्यमान भीषण ज्वालाओं से जलते हुए संसार में जीव को बचाने वाला कोई नहीं है ।। ६४ ।।
व्याख्या :- यह है अशरण भावना का स्वरूप! इस संबंध में कुछ आंतरश्लोको का भावार्थ प्रस्तुत है - अष्टांग आयुर्वेद के विशेषज्ञ, औषध या मृत्युंजय आदि मंत्र कोई भी मृत्यु से बचा नहीं सकते। चारों ओर से नंगी तलवारों का पींजरा हो और उसमें चारो और चतुरंगिनी सेना से घिरा हुआ राजा सुरक्षित बैठा हो, फिर भी यम के सेवक उसे | रंक के समान जबरन खींच ले जाते है जलाशय के बीचोबीच बनाये हुए स्तंभ के उपरी भाग में एक पींजरा था, उसमें | एक राजा ने अपने प्रिय पुत्र को मृत्यु से बचाने के लिए सुरक्षित रखा था, किन्तु वहां से भी मृत्यु खींचकर ले गयी तो फिर दूसरों का तो कहना ही क्या ? सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र थे; लेकिन उन शरण रहित पुत्रों को ज्वलनप्रभ | देव ने क्षणभर में तिनके की तरह एकदम जलाकर भस्म कर दिया । स्कन्दाचार्य की आंखों के सामने ही उनके पांचसौ | शिष्यों को यमराज तुल्य पालक पुरोहित कोल्हू में पीसकर मार रहा था, तब उनका शरणदाता कोई भी नहीं हुआ। जैसे | पशु मृत्यु के प्रतीकार का उपाय नहीं जानता, उसी प्रकार पंडित भी मृत्यु के प्रतीकार का उपाय नहीं जानता । धिक्कार है, ऐसी मूढ़ता को ! दुनिया में ऐसे-ऐसे पराक्रमी पुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपनी तलवार के बल पर सारी दुनियाँ को | निष्कंटक बना दिया था, लेकिन वे ही शूरवीर यमराज की तनी हुई भ्रकुटि देखकर भय से दांतों तले अंगुली दबा लेते | थे। इंद्र भी जिसे स्नेह पूर्वक आलिंगन करके अपने आधे आसन पर बिठाते थे, वह श्रेणिक राजा भी अंतिम समय में | शरण रहित हो गया था। ऐसी दुर्दशा हो गयी कि सुनी भी न जा सके। तलवार की धार पर चलने के समान महाव्रतों | का पालन करने वाले पवित्र मुनि; जिन्होंने अपने जीवन में जरा भी पापकर्म नहीं किया; वे भी मृत्यु का प्रतीकार करने में असमर्थ रहे। वास्तव में यह संसार अशरण रूप है, अराजक है, अनाथ है, अनायक है, इसमें मृत्यु का कोई भी प्रतीकार नहीं कर सकता। यह यमराज का कौर बन रहा है धर्म क्रिया तो प्रतीकार रूप मानी जाती है मगर वह भी | मृत्यु का प्रतीकार नहीं है वह शुभगति की दाता या शुभगति की कर्ता मानी जाती है। इस प्रकार तीनों लोकों में भयंकर | यमराज बेधड़क होकर ब्रह्मा से लेकर चींटी तक के तमाम जीवों से परिपूर्ण समग्र जगत् को कवलित करने से नहीं | थकता । खेद है कि सारा जगत् इससे परेशान हो रहा है। अतः धर्म की शरण स्वीकार करो। इस प्रकार अशरणभावना का वर्णन किया || ६४॥
अब तीन श्लोकों में संसार भावना का स्वरूप बताते हैं
| | ३९१ । श्रोतियः श्वपचः स्वामी, पत्तिर्ब्रह्मा कृमिश्च सः । संसारे नाट्ये नटवत्, संसारी हन्त ! चेष्टते ||६५|| अर्थ :- अफसोस है, इस संसार रूपी नाट्यशाला में नट की तरह संसारी जीव विभिन्न चेष्टाएँ करता है। कभी वेदपाठी श्रोत्रिय बनता है, कभी चांडाल, कभी सेवक, कभी प्रजापति (ब्रह्मा) बनता और कभी कीड़ा
बनता है ||६५||
भावार्थ :जैसे नाटककार भिन्न-भिन्न वेष बदलकर नाट्यमंच पर आता है, वैसे ही संसारी जीव भी विचित्र कर्म |रूपी उपाधि के कारण विविध शरीरों को धारण करके संसार के रंगमंच पर आता है और नाटक का पार्ट अदा करता | है। जो वेदगामी ब्राह्मण था, वही कर्मानुसार चांडाल बनता है और जो स्वामी था, वह मरकर सेवक के रूप में पैदा होता
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