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अनित्य भावना का स्वरूप
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ५९ से ६२ लक्ष्मी समुद्र की तरंगों के समान चपल है; प्रियजनों के संयोग स्वप्न के समान क्षणिक है और यौवन
वात्याचक्र (आंधी) से उड़ाई गयी आक की रुई के समान अस्थिर है ।।५९।। व्याख्या :- इसके संबंध में कुछ आंतरश्लोक है। उनका भावार्थ प्रस्तुत करते हैं-अपने पर अथवा दूसरों पर सभी दिशाओं से आपत्तियाँ आया ही करती है। जीव यमराज के दांत रूपी यंत्र में पड़ा हुआ कष्ट से जी रहा है। चक्रवर्ती, इंद्र आदि का शरीर वज्र के समान है। परंतु उसके साथ भी अनित्यता लगी है तो फिर केले के गर्भ के समान निःसार शरीर वालों का क्या कहना? जो निःसार शरीर में रहना चाहता है। मानो वह जीर्ण सूखे पत्तों से बने हुए पुरुष के शरीर में रहना चाहता है। मृत्यु रूपी व्याध के मुख-कोटर में स्थित शरीरधारी को बचाने में कोई भी मन्त्र, तंत्र या औषधि समर्थ नहीं है। आयुष्य की वृद्धि होने के साथ जीव को पहले वृद्धावस्था और बाद में यमराज अपना ग्रास बनाने की जल्दी करता है। धिक्कार हो, जन्मधारी जीवों को; जो यह भलीभांति जानते हैं कि यह जीव यमराज के अधीन है, फिर वे आहार का एक भी कौर कैसे ले सकते हैं! फिर आयुकर्म की तो बात ही क्या कहें? जैसे पानी में बुलबुला पैदा होकर तुरंत ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जीव का शरीर उत्पन्न होकर क्षणभर में विनष्ट हो जाता है। धनवान हो या दरिद्र, राजा हो या रंक, पंडित हो या मूर्ख सज्जन हो या दुर्जन, यमराज सब को एक समान हरण करने वाला है। उसमें गुणों के प्रति उदारता नहीं है; दोषों के प्रति द्वेष नहीं है। जैसे दावाग्नि सारे जंगल को जलाकर भस्म कर देती है। वैसे ही यमराज सब प्राणियों को नष्ट कर देता है। कुशास्त्र पर मोहित होने पर भी कोई ऐसी शंका नहीं कर सकता कि किसी भी उपाय से यह काया निरापद रह सके। जो मेरुपर्वत को दंड और पृथ्वी को छत्र रूप बनाने में समर्थ है, वह भी अपने को या दूसरों को मृत्यु के मुख से बचाने में असमर्थ है। चींटी से लेकर देवेन्द्र तक कोई भी समझदार मनुष्य कभी ऐसा नहीं कहेगा कि 'मैं यमराज के शासन में काल को ठग लूंगा और हे बुद्धिशाली! यौवन को भी अनित्य ही समझो; क्योंकि बल और रूप का हरण करने वाला बुढ़ापा उसे जर्जरित कर देता है। यौवनवय में जो कामिनियाँ काम की इच्छा से तुम्हारी अभिलाषा करती थी, वे वृद्धावस्था में तुम पर थूकती है, तुम्हारे पास भी नहीं फटकती। जिन धनवानों ने बहुत ही क्लेशपूर्वक धन कमाया, उसे बिना खर्च किये सुरक्षित रखा, उनका वह धन भी क्षणभर में ही नष्ट हो जाता है। विद्वानों ने धन को पानी के बुलबुले की अथवा बिजली के प्रकाश की उपमा दी है! जैसे ये चीजें देखते ही देखते नष्ट हो जाती है, वैसे ही धन नष्ट हो जाता है। मित्रों, बंधुओं और सगेसंबंधियों के संयोग के साथ भी वियोग जुड़ा हुआ है। इस प्रकार सदा अनित्यता का विचार करने वाला पुत्र की मृत्यु के समय शोक नहीं करता। नित्यता के ग्रह-भूत से ग्रस्त मूढ़ मनुष्य ही मिट्टी का बर्तन टूटने पर रोता है। इसलिए इस जगत् में केवल | देहधारियों का शरीर, धन, यौवन या बंधु-बांधव ही अनित्य नहीं है, अपितु सचेतन-अचेतन सारा ही विश्व अनित्य है। संतपुरुष कहते हैं-एकमात्र धर्म ही नित्य है।।५७-५९।।
अब इस अनित्यभावना का उपसंहार करते हुए कहते हैं।३८६। इत्यनित्यं जगद्वृत्तं, स्थिरचित्तः प्रतिक्षणम् । तृष्णाकृष्णाहिमन्त्राय, निर्ममत्वाय चिन्तयेत् ॥६०॥ अर्थ :- इस प्रकार स्थिरचित्त से प्रतिक्षण तृष्णा रूपी काले भुजंग को वश करने में मंत्र के समान निर्ममत्वभाव
को जगाने के लिए जगत् के अनित्य स्वरूप का चिंतन करना चाहिए ।।६।। अब अशरणभावना के संबंध में कहते हैं।३८७। इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते, यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो तदन्तकातके, कः शरण्य शरीरिणाम्?॥६१।। अर्थ :- अहो! जब इंद्र, उपेन्द्र आदि देव, वासुदेव, चक्रवर्ती आदि मनुष्य भी मृत्यु का विषय बन जाते हैं; तब
मृत्यु के आतंक के समय जीवों को शरण देने वाला कौन है? मृत्यु के समय इंद्र की भी कोई रक्षा नहीं
कर सकता ॥६१। ।३८८। पितुर्मातुः स्वसुर्धातुस्तनयानां च पश्यताम् । अत्राणो नीयते जन्तुः, कर्मभिर्यमसद्मनि ॥६२॥ ___ अर्थ :- पिता, माता, बहन, भाई और पुत्र आदि स्वजनों के देखते ही देखते कर्म अत्राण-शरणविहीन प्राणी को
चारगति रूप यमराज के सदन में ले जाते हैं। उस समय कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता। वास्तव में जीव अपने कर्मानुसार चर्तुगति रूप संसार में विविध गतियों व योनियों में जाता है ।।२।।
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