Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 371
________________ समत्व का विवरण योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ५३ से ५४ | वाणीविलास है।' इसका समाधान करते हैं कि आत्मज्ञान का अभ्यास करते-करते जब ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से | जो आत्मस्वरूप का निर्णय भलीभांति कर लेता है; अनुभव कर लेता है, वह आत्मा जीव और कर्म को सामायिक| शलाका से अलग कर सकता है। वह बार-बार स्वसंवेदन - आत्मानुभव से आत्मा का दृढ़ निश्चय करता है कि आत्म | स्वरूप को आवृत करने - ढकने वाले कर्म आत्मा से भिन्न स्वरूप वाले हैं। वही साधक परमसामायिक के बल से जीव और कर्म को अलग-अलग करता है ।। ५२ ।। आत्म-निश्चय के बल से साधक केवल कर्म को ही अलग करता है; इतना ही नहीं, किन्तु आत्मा को परमात्मस्वरूप का दर्शन भी कराता है। इसे ही कहते हैं ||३७९। रागादिध्वान्तविध्वंसे, कृते सामायिकांशुना । स्वस्मिन् स्वरूपं पश्यन्ति, योगिनः परमात्मनः ॥५३॥ अर्थ :- सामायिक रूपी सूर्य के द्वारा राग, द्वेष और मोह का अंधकार नष्ट कर देने पर योगी पुरुष अपनी आत्मा में परमात्म-स्वरूप का दर्शन कर लेते हैं ।।५३|| व्याख्या :- आत्म स्वरूप का निरोध करने वाले होने से रागादि ही अंधकार है। उनका नाश सामायिक रूपी सूर्य से होता है। अतः प्रत्येक आत्मा में स्वाभाविक रूप से परमात्म स्वरूप निहित है; उस स्वरूप को तब योगीपुरुष देखने लगते हैं। वास्तव में विचार करें तो सभी आत्मा परमात्म स्वरूप ही है। प्रत्येक आत्मा में केवलज्ञान का अंश निहित है। आगम में परममहर्षियों ने कहा है- सव्वजीवाणं पि अ णं अक्खरस्साणंतभागो निच्चुग्घाडिओ चेव । अर्थात् सभी | जीवों में अक्षर का अनंतवां भाग नित्य अनावृत = खुला रहता है। (नंदी सूत्र ७७) सिर्फ रागादि दोषों से कलुषित होने | के कारण ही आत्मा में साक्षात् परमात्म स्वरूप प्रकट नहीं होता । सामायिक रूपी सूर्य का प्रकाश होने से रागादि| अंधकार दूर हो जाता है और आत्मा में परमात्म-स्वरूप प्रकट हो जाता है ।। ५३ ।। अब समता के प्रभाव का वर्णन करते हैं || ३८० । स्निह्यन्ति जन्तवो नित्यं वैरिणोऽपि परस्परम् । अपि स्वार्थकृते साम्यभाजः साधोः प्रभावतः ||५४ || अर्थ :- यद्यपि साधु अपने स्वार्थ के लिए समत्व का सेवन करते हैं; फिर भी समभाव की महिमा ऐसी अद्भुत है कि उसके प्रभाव से नित्य वैर रखने वाले सर्प-नकुल जैसे जीव भी परस्पर प्रेम-भाव धारण कर लेते हैं ||५४ ॥ व्याख्या : कहने का तात्पर्य यह है कि समभाव का ऐसा प्रभाव है कि चाहे साधक ने अपने लिये समभाव किया; | मगर नित्यशत्रु भी परस्पर मैत्रीभाव रखने लगते हैं। इसलिए पंडितजन स्तुति करते हैं कि 'देव! हाथी केसरीसिंह के पैर को सूंड से खींचकर अपने कपोल - स्थल के साथ खुजलाता है, सर्प नेवले के मार्ग को रोककर खड़ा रहता है, सिंह | विशाल गुफा के समान मुंह फाड़े तैयार रहता है; किन्तु मृग बार-बार विश्वास से उसे सूंघता है। जहां ऐसे क्रूर पशु भी शांतचित्त हो जाते हैं, ऐसे सभी के साम्यस्थान = समवसरणभूमि की मैं प्रार्थना = स्तुति करता हूं। शास्त्रों ने भी साम्ययुक्त | योगी की स्तुति इस प्रकार की है। योगियों के पास जाने से वैर छूट जाता है। इस विषय के आंतरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं - चेतन और अचेतन पदार्थ में, इष्ट और अनिष्ट में जिसका मन | नहीं मुर्झाता उसे साम्य कहते हैं। कोई आकर गोशीर्ष - चंदन से शरीर पर लेप करे अथवा कोई शस्त्र से भुजाओं का छेदन | करे; फिर भी चित्तवृत्ति रागद्वेष से रहित रहे, उसे अनुत्तर साम्य कहते हैं। कोई स्तुति करे, तो उस पर प्रीति न हो | और कोई श्राप दे - निंदा करे तो उस पर द्वेष न हो, परंतु दोनों के प्रति जिसका चित्त समान रहे, वही साधक साम्य का अवगाहन करता है। इसमें किसी प्रकार का हवन, तप अथवा दान करना नहीं पड़ता । वस्तुतः बिना मोल के खरीदे हुए साम्यमात्र से ही यह निर्वृत्ति होती है । उत्कृष्ट और क्लिष्ट प्रयत्नसाध्य रागादि की उपासना करने से क्या लाभ? क्योंकि बिना प्रयत्न से मिलने वाला यह मनोहर सुख तो साम्य ही देता है। तूं इसी का आश्रय ले । परोक्ष पदार्थ को | नहीं मानने वाला नास्तिक स्वर्ग और मोक्ष को नहीं मानेगा; परंतु वह स्वानुभवजन्य साम्यसुख का तो अपलाप नहीं | कर सकेगा। कवियों के प्रलाप में मस्त बनकर उस कल्पित अमृत में क्यों मूढ़ बना है? अरे मूढ़ ! आत्म-संवेद्यरस रूपी | साम्यामृत के रसायन का पान कर। खाने योग्य, चाटने योग्य, पीने योग्य और चूसने योग्य रसों से विमुख बने हुए साधु 349

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