Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

View full book text
Previous | Next

Page 372
________________ समभाव की महिमा 'भावना का स्वरूप' योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ५५ से ५९ | भी बार-बार स्वेच्छा से साम्यामृत रस का पान करते हैं। गले में सर्प लिपटा हो या कल्पवृक्ष के पुष्पों की माला पड़ी | हो; फिर भी जिसे अप्रीति या प्रीति नहीं होती, वही समता का धनी है। साम्य कोई गूढ़ पदार्थ या किसी आचार्य द्वारा देय मुष्टि रूप उपदेश अथवा और कुछ भी नहीं है। बालक हो या पंडित; दोनों के भवरोग मिटाने के लिए साम्य एकतीसरी औषधि है। शांत योगी जनों का यह अत्यंत क्रूर कर्म हैं, कि वे साम्य-शस्त्र से रागादि-परिवार को नष्ट करते हैं यह व्यंगात्मक वाक्य है। समभाव का यह परम प्रभाव तुम भी प्राप्त करो! जो पापियों को भी क्षणभर में परमस्थान प्राप्त कराता है। उसी समभाव की उपस्थिति में रत्नत्रय की सफलता है, किन्तु उसके अभाव में निष्फलता है। ऐसे महाबलवान उस समभाव को नमस्कार हो! समस्त शास्त्रों और उनके अर्थों का अवगाहन करने के बाद उच्चस्वर से चिल्ला-चिल्लाकर हम तुम्हें कहते हैं कि इस लोक में अथवा परलोक में अपने को या दूसरों को साम्य के बिना और कोई सुख देने वाला नहीं है। उपसर्ग के अवसर पर या मृत्यु के समय इस कालोचित साम्य के बिना और कोई उपाय नहीं है, शांति का। राग-द्वेष आदि शत्रुओं का नाश करने में निपुण अनेक प्राणियों ने साम्म-साम्राज्य-लक्ष्मी का उपभोग करके शाश्वत शुभगति और उत्तम पदवी प्राप्त की है। इस कारण इस मनुष्यजन्म को सफल करने का इच्छुक साधक निःसीम सुखसमूह से परिपूर्ण इस साम्य-समभाव को प्राप्त करने में प्रमाद न करें ।।५४।। यहां शंका होती है कि 'सभी दोषों के निवारण का कारण समत्व है, इसे जानकर तो हमें प्रसन्नता है, किन्तु यदि उस साम्य का प्रतिरोधी कोई उपाय हो और उस उपाय के निवारण का भी दूसरा उपाय हो, एवं उसे हम सहजभाव से कर सकें, तो हम निराकांक्ष होकर आनंद का अनुभव कर सकेंगे।' इसका समाधान मन में सोचकर दो श्लोकों में करते हैं ।३८१। साम्यं स्यान्निर्ममत्वेन, तत्कृते भावनाः श्रयेत् । अनित्यतामशरणं, भवमेकत्वमन्यताम् ।।५५।। ।३८२। अशौचमाश्रवविधिं, संवरं कर्मनिर्जराम् । धर्मस्वाख्याततां लोकं, द्वादशी बोधिभावनाम् ॥५६॥ अर्थ :- समता की प्राप्ति निर्ममत्व से होती है, और निर्ममत्व को पाने के लिए बारह भावनाओं का आश्रय करना। वे भावना इस प्रकार है ।।५५-५६।। व्याख्या :- पूर्वोक्त साम्य ममत्वरहित होने से होता है। प्रश्न होता है कि साम्य और निर्ममत्व में क्या अंतर है? उत्तर देते हैं-साम्य राग और द्वेष इन दोनों का विरोधी-प्रतिपक्षभूत है; जबकि निर्ममत्व सिर्फ राग का विरोधी है। इसलिए दोनों को रोकने के लिए साम्य कहा है। अतः शक्तिशाली राग का विनाश करने वाला निर्ममत्व उपाय भी साम्य में समाविष्ट हो जाता है। जैसे बलवान् सैन्य हो उसमें किसी बलवान् का विनाश हो गया हो तो, दूसरों का भी विनाश करने में कठिनता नहीं होती; इसी तरह संग के निग्रह का प्रधान हेतु निर्ममत्व है, वही हीनबल वाले द्वेषादि के विनाश के लिए हो सकता है। अधिक क्या कहें! निर्ममत्व का उपाय बताते हैं। निर्ममत्वभाव जागृत करने के लिए योगी को अनुप्रेक्षाओं भावनाओं का आलंबन लेना चाहिए। उन बारह भावनाओं के नाम इस प्रकार है-१. अनित्यभावना, २. अशरणभावना, ३. संसारभावना, ४. एकत्वभावना, ५. अन्यत्वभावना, ६. अशौचभावना, ७. आश्रवभावना, ८. संवर भावना, ९. निर्जराभावना, १०. धर्मस्वाख्यात-भावना, ११. लोक-भावना और १२. बोधिदुर्लभभावना। ये बारह भावनाएँ है। इन १२ भावनाओं का स्वरूप क्रमशः बताया जायेगा ।।५५-५६।। इनमें सर्वप्रथम अनित्य-भावना का स्वरूप कहते हैं।३८३। यत्प्रातस्तन मध्याह्ने, यन्मध्याह्ने न तनिशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् ही!, पदार्थानामनित्यता ॥५७।। ।३८४। शरीरं देहिनां सर्व-पुरुषार्थ-निबन्धनम् । प्रचण्ड-पवनोद्भूत-घनाघन-विनश्वरम् ।।५८॥ ।३८५। कल्लोल-चपला लक्ष्मीः, सङ्गमाः स्वप्नसन्निभाः । वात्या-व्यतिकरोत्क्षिप्ततूल-तुल्यं च यौवनम्।।५९।। अर्थ :- प्रातःकाल जो दिखाई देता है, वह मध्याह्न में नहीं दिखायी देता और मध्याह्न में जो दृष्टिगोचर होता है; वह रात में नजर नहीं आता। इसलिए अफसोस है इस संसार में समस्त पदार्थ अनित्य है ॥५७।। देहधारियों का यह शरीर समस्त पुरुषार्थों का आधार है। परंतु वह भी प्रचंडवायु से उड़ाये गये बादलों के समान विनश्वर है ॥५८।। 350

Loading...

Page Navigation
1 ... 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494