________________
तिर्यंचगति के दुःख
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ६७ हैं, वैसे ही नारकों को कोल्हू में पीसा जाता है। जब वह प्यास से पीड़ित होता है तो बेचारे को गर्मागर्म उबलते हुए शीशे या तांबे के रस वाली वैतरणी नदी में बहाते हैं। जब धूप से नारक छाया में जाना चाहता है तो उसे असिवन की छाया में पहुंचाया जाता है; जिससे उसकी छाया में खड़े रहने पर उस पर तलवार की धार के समान पत्ते गिरते हैं, जिनसे तिल के समान उसके शरीर के सैंकड़ों टुकड़े हो जाते हैं। पूर्वजन्म में परस्त्री के साथ की हुई रमणक्रीड़ा याद दिलाकर असुर उसे वज्र के समान तीखे कांटों वाले शाल्मलिवृक्ष की डाली के साथ तथा तपाई हुई लोहे की पुतली के साथ आलिंगन कराते हैं। पूर्वजन्म में खाये हुए मांस की बात याद दिलाकर उसके ही अंगों से मांस काट-काटकर उसे खिलाते हैं तथा मदिरापान का स्मरण करा कर गर्मागर्म शीसे का रस पिलाते हैं। आग पर सेकना, डंडे की तरह उछालना, तेज शूली से बींधना, कुंभीपाक में पकाना, उबलते हुए तेल में तलना, गर्म रेत पर चने के समान भुनना इत्यादि हजारों किस्म की यातनाएँ पापात्मा नारकीय जीव परवश होकर नरक में सतत विलाप करते हुए सहते हैं; रोरोकर दुःख भोगते हैं। बगुले, कंक आदि क्रूर हिंसक पक्षी चोंचों से उनके शरीर को छिन्नभिन्न कर देते हैं। आंख आदि इंद्रियाँ खींचकर निकाल लेते हैं। शरीर से पृथक् हुए उनके अवयव पुनः जुड़ जाते हैं। इस प्रकार नारकीय जीव महादुःख से पीड़ित और सुख के लेशमात्र अनुभव से वंचित होकर लगातार दश हजार वर्ष से लेकर तैतीस सागरोपम के लंबे समय तक नरक में रहते हैं।
तिर्यंचगति के दुःख - तिर्यंचगति मिलने पर कितने ही जीव एकेन्द्रिय में पृथ्वीकाय का रूप प्राप्त करते हैं, जिसमें हल आदि शस्त्र से उसे खोदा जाता है। हाथी-घोड़े आदि के पैरों द्वारा उसे कुचला जाता है, जलप्रवाह से भीगना पड़ता है, दावाग्नि से जलना पड़ता है, नमक, खार, मूत्रादि क्षार जल वगैरह से व्यथित होना, उबलते पानी में नष्ट होना, कुम्हार आदि के आँव में पकना, घड़े, इंट आदि के रूप में पकना, कीचड़ बनना एवं मिट्टी की कुंडी के रूप में पकना, सोना आदि गलाते समय आग में तपना पडता है तथा कठोर पत्थर की चोट सहनी पड़ती है. नदी के तेज धार से कट जाना एवं पर्वतों के रूप में टूटकर गिरना पड़ता है। अपकायत्व प्राप्त करके सूरज की गर्म किरणों में तपना, हिम बनकर जम जाना, धूल में सूखना, खारे, खट्टे आदि विविध जलजाति के परस्पर इकट्ठे होने पर, बर्तन में उबालने पर या प्यासे जीवों द्वारा जल पी जाने पर अपकायिक जीवों को मृत्यु का सामना करना पड़ता है। अग्निकायिक जीवों का जल आदि से घात होता है; घन आदि से चोट खाना. ईधन आदि से जलना इत्यादि रूप में अग्निकाय को वेदना सहनी पड़ती है। वायुकायिक जीवों का हनन पंखे आदि से होता है, शीत, उष्ण आदि द्रव्यों के संयोग से उनकी क्षण-क्षण में मृत्यु होती है, पूर्व आदि विभिन्न दिशाओं की सभी हवाएँ इकट्ठी होने से वायुकायिक जीवों की विराधना होती है। मुंह, नाक आदि की हवा से भी विराधना होती है. सर्प आदि द्वारा वाय का पान किया जाता है। कंद. मल. फल. फल त्वचा. गुल्म, गुच्छा, नीलण-फूलण आदि दस प्रकार के
भेदन, अग्नि में पचन-पाचन, परस्पर घर्षण आदि से होता है। इसी प्रकार सखाने, पीलने, घिसने, कटने, पीटने, क्षार आदि डालने भड़भूजे आदि से पूंजने, उबलते हुए तेल, पानी आदि में तलने, दावानल से जलकर राख बनने, नदी की तेज धारा से जड़ से उखड़ जाने, आंधी आदि से टूट पड़ने, खाने वाले के आहार रूप बनने इत्यादि रूप में भी वनस्पतिकायिक जीवों का घात होता है। सभी प्रकार की वनस्पति सभी जीवों का भोजन रूप बनती है। इसे सब प्रकार के शस्त्रों द्वारा लगातार क्लेश होता रहता है। द्वीन्द्रिय वाले जीवों को सर्दी, गर्मी, वर्षा, अग्नि आदि का क्लेश सहना पड़ता है, कैंचुआ पैरों से दब जाता है, मुर्गे आदि भी खा जाते हैं, पोरे पानी के साथ निगले जाते हैं, शंख आदि मारे जाते हैं, जौंक निचोड़ी जाती है, पेट में पड़े हुए केंचुएँ आदि को औषध से गिराकर मारा जाता है। त्रिन्द्रिय जीव जूं, खटमल, पिस्सू आदि को मसल दिया जाता है, कई शरीर से दब जाते है, चींटी पैर से दब जाती है या झाडू आदि से सफाई करते समय मर जाती है। कीचड़ में फंस जाती है। धूप या गर्म पानी में जलना पड़ता है। कुंथुआ आदि बारीक जीव आसन | आदि से दबकर मर जाते हैं, इस प्रकार की अनेक वेदनाएँ और मृत्यु के दुःख भोगने पड़ते है। चतुरिन्द्रिय जीव मक्खी, मच्छर आदि अनेक कारणों से नष्ट हो जाते हैं। मधुमक्खी, भौरे आदि का शहद ग्रहण करने वाले लोग ढेला आदि फेंककर विराधना करते हैं। पंखे आदि से डांस, मच्छर वगैरह का ताड़न होता है। मक्खी, मकौड़ों आदि को छिपकली
354