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आश्रव भावना स्वरूप - आठ कर्म के आश्रव हेतु
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ७८ अर्थ :- कषाय, पांचों इंद्रियों के विषय, अशुभयोग, प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व और आर्त-रौद्रध्यान; ये सभी
अशुभकर्मबंधन के हेतु हैं ।।७८|| व्याख्या :- क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी चार कषाय, कषायों से संबंधित हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद ये मिलाकर नौ नोकषाय, पांचों इंद्रियों के २३ विषयों की कामना, मन-वचन
तीन योग; अज्ञान, संशय-विपयेय, राग-द्वेष, स्मृतिभ्रंश, धर्म के प्रति अनादर,योगों में दुष्प्रवृत्ति इस तरह आठ प्रकार का प्रमाद. पाप का अप्रत्याख्यान रूपी अविरति. मिथ्यादर्शन. आर्तध्यान और रौद्रध्यान का सेवन | ये सब अशुभकर्मों के आगमन (आश्रव) के कारण है। यहां प्रश्न होता है कि इन (उपर्युक्त) सबको तो बंधन के हेतु कहे हैं। जैसे कि वाचकमुख्यश्री उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र ८/१ में कहा है-मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग ये कर्मबंध के हेतु है। तब फिर आश्रव भावना में आश्रव के हेतु न कहकर इन बंधहेतुओं को क्यों कहा गया? इसके उत्तर में कहना है कि तुम्हारा प्रश्न यथार्थ है, महापुरुषों ने इन्हें आश्रवभावना में ही कहा है, बंध को भावना के रूप में नहीं बताया। आश्रवभावना ही उसे समझा जा सकता है; क्योंकि आश्रव से ग्रहण किया हुआ कर्मपुद्गल आत्मा के साथ संबद्ध होने पर बंध कहलाता है। इसीलिए तत्त्वार्थ सूत्र ८/२-३ में आगे कहा है-सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः अर्थात् कषायसहित जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, उसे बंध कहते हैं। इसलीए बंध और आश्रव दोनों के अंतर की यहां | विवक्षा नहीं की। फिर यह शंका उठाई जाती है कि आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों का क्षीर-नीर की तरह एकमेक हो जाना बंध कहलाता है; तब फिर आश्रव को बंध क्यों नहीं कहा जाता? इसका समाधान यह है-यद्यपि तुम्हारी बात युक्तियुक्त है, तथापि आश्रव द्वारा नहीं ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गल बंध के अंतर्गत कैसे हो सकते हैं? इस कारण कर्मपुद्गलों के | ग्रहण के लिए कारण रूप आश्रव को बंध का हेतु बनाने में कोई दोष नहीं है। फिर यह सवाल उठता है कि तो फिर | उपर्युक्त पांचों को आश्रवहेतु कहना चाहिए, बंधहेतु कहना व्यर्थ है! उत्तर में कहते हैं ऐसी बात नहीं है। यहां बंध और
आश्रव को एकता रूप की दृष्टि से कहा है, वस्तुतः यह पाठ आश्रवहेतु का है; इसलिए सबको अपनी-अपनी जगह | यथार्थ रूप में समझ लेना।
यहां आंतरलोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं-कर्मपुद्गलों को ग्रहण करने के कारण यह आश्रव कहलाता है। कर्म के ज्ञानावरणीय आदि ८ भेद हैं।
ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के आश्रवहेतु ये हैं-ज्ञान-दर्शन रूप गुण और इन गुणों से युक्त गुणियों के ज्ञानदर्शन प्राप्त करने में अंतराय (विघ्न) डालना, उन्हें खत्म करना, उनकी निंदा व आशातना करना, उनकी हत्या करना, उनके साथ डाह या ईर्ष्या करना।
सातावेदनीय (पुण्य) कर्म के आश्रवहेतु ये हैं-देवपूजा, गुरु-सेवा, सुपात्र दान, दया, क्षमा, संयमासंयम, देशविरति, कर्म से मलिन न होना, बालतप आदि। असातावेदनीय (पाप) कर्म के आश्रवहेतु ये हैं-स्वयं दुःखी होना, दूसरों को दुःखी करना, शोक करना-कराना, वध, उपताप, आक्रंदन (विलाप) एवं सत् कार्यों का पश्चात्ताप करनाकराना।
दर्शनमोहनीय कर्म के आश्रव के हेतु ये हैं-वीतराग, श्रुतज्ञान, संघ, धर्म और सब देवों की निंदा करना, तीव्र मिथ्यात्व के परिणामवश सर्वज्ञ, सिद्ध परमात्मा एवं अहंतदेव या देवों के लिए अपलाप करना, इन्हें झुठलाना, इनके
अस्तित्व से इन्कार करना, धर्मात्मा पुरुषों पर दोषारोपण करना, उन्मार्ग का उपदेश या कथन करना, अनर्थ का आग्रह रखना, असंयमी की पूजा-प्रतिष्ठा करना, पूर्वापरविचार किये बिना कार्य करना और गुरु आदि का अपमान वगैरह करना इत्यादि। ऐसे अकार्य करने वालों को सम्यग्दर्शन प्राप्त होना अतिकठिन होता है।
चारित्र मोहनीय कर्म के कषाय हेतु- कषाय के उदय से आत्मा में क्रोधादि के तीव्र परिणाम (आवेश) का होना, इससे जीव को चारित्ररत्न प्राप्त नहीं होता। हास्यमोहनीयनोकषाय आश्रव के हेत- हास्य करने से उत्तेज कामोत्तेजक मजाक करना, हंसी मजाक उड़ाने का स्वभाव, अधिक बोलते रहना, दीनताभरे वचन बोलना आदि। रतिनोकषाय-आश्रवहेतु - नये-नये ग्राम, देश, नगरादि देखने की उत्कंठा, अश्लील चित्रादि देखने का शौक,
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