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मनः शुद्धि वर्णन
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ४५ से ४८ इन छहों लेश्याओं में प्रथम तीन लेश्याएँ अप्रशस्त ( खराब) है और अंतिम तीन लेश्याएँ प्रशस्त (अच्छी ) है । जब जब आत्मा विशुद्ध, विशुद्धतर होता जाता है, तब तब लेश्याएँ बदलती रहती है । मृत्यु के समय जिस लेश्या के परिणाम होते हैं, तदनुसार ही जीव को गति प्राप्त होती है। इसीलिए भगवान् ने कहा- जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववज्जई; | अर्थात् जीव जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्यावाली गति में पैदा होता है; भगवद्गीता आदि अन्य धर्मग्रंथों में भी | कहा है- अंते च भरतश्रेष्ठ ! या मतिः, सा गतिर्नृणाम् अर्थात् अंतिम समय में जैसी मति होती है, तदनुसार ही मनुष्यों की गति होती है; यहां जो 'मति' शब्द का प्रयोग किया गया है, वह चेतना रूप है; तब फिर 'जैसी मति वैसी गति' यह बात किसके साथ संगत हो सकती है? मति का अर्थ अशुद्धतम आदि परिणाम किया जाय, तब परमर्षि का यह | कथन युक्तिसंगत होता है। छह लेश्याओं में से कृष्णलेश्यावाला जीव नरकगति में, नीललेश्यावाला जीव स्थावर योनि में कापोत लेश्यावाला जीव तियंचगति में, पीतलेश्या वाला जीव मनुष्यगति में, पद्मलेश्या वाला देवगति में और शुक्ललेश्या वाला जीव मोक्ष में जाता है। अधिक क्या कहें, अशुद्धलेश्याओं को छोड़कर शुद्ध लेश्याओं को स्वीकार करने से ही मन की उत्तरोत्तर शुद्धि हो सकती है ।। ४४ ।।
इसी प्रकार मनः शुद्धि के कुछ छुटपुट उपाय बताते हैं
| | ३७१ | मनः शुद्धयैव कर्त्तव्यो, राग-द्वेष - विनिर्जयः । कालुष्यं येन हित्वाऽऽत्मा स्वस्वरूपेऽवतिष्ठति (ते) ॥४५॥ अर्थ :- आत्म-स्वरूप भावमन की शुद्धि के लिए प्रीति- अप्रीति स्वरूप राग-द्वेष का निरोध करना चाहिए। अगर राग-द्वेष उदय में आ जाएँ तो उन्हें निष्फल कर देने चाहिए। ऐसा करने से आत्मा मलिनता (कालुष्य) का त्याग करके अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है ।। ४५ ।।
राग-द्वेष की दुर्जयता तीन श्लोकों द्वारा समझाते हैं
अर्थ :
| | ३७२ | आत्मायत्तमपि स्वान्तं कुर्वतामपि योगिनाम् । रागादिभिः समाक्रम्य, परायत्तं विधीयते ॥ ४६ ॥ | | ३७३ | रक्ष्यमाणमपि स्वान्तं समादाय मनाग् मिषम् । पिशाचा इव रागाद्याश्छलयन्ति मुहुर्मुहुः ||४७ || । ३७४ | रागादितिमिरध्वस्तज्ञानेन मनसा जनः । अन्धेनान्धइवाकृष्टः, पात्यते नरकावटे ॥४८॥ योगियों के समान अपने मन को वशीभूत करने का प्रयत्न करते-करते बीच में ही राग-द्वेष-मोह आदि विकार हमला करके क्षणभर में मूढ़ और द्वेषी बनाकर रागादि के अधीन कर देते हैं ।। ४६ ।। यम-नियम आदि से भावमन की विकारों से रक्षा करते हुए भी योगियों के मन को रागादि पिशाच कोई न कोई प्रमाद रूपी बहाना ढूंढकर बार-बार छलते रहते है। जैसे मंत्रतंत्रादि द्वारा पिशाचों से रक्षा करने पर भी मौका पाकर छल से वे साधक को पराधीन कर देते हैं, वैसे ही रागादि पिशाच योगियों के मन को छलते रहते हैं ।। ४७ ।।
रागादि रूपी अंधकार से जिसके सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाते हैं, उस योगी का मन उसी तरह खींचकर नरक के कुएँ में गिरा देता है, जिस तरह एक अंधा दूसरे अंधे को खींचकर कुंए में गिरा देता है ।।४८ ।। भावार्थ :अंधकार आंख के प्रकाश को ढक देता है; इसी प्रकार रागादि भी आत्मा के सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शन रूपी प्रकाश को ढक देते हैं। इस कारण जब साधक के ज्ञान और दर्शन (तत्त्वश्रद्धा) नष्ट हो जाते हैं तो दर्शनज्ञान | से भ्रष्ट मन उसे अपने वश में करके नरक के कुएँ में गिरा देता है। जैसे एक अंधा दूसरे को कुएँ में गिरा देता है, वैसे ही रागादि से अंधा मानस, मानसिक अंध मनुष्य को भी नरक के कुएँ में गिरा देता है। मतलब यह है कि मन से अंधा | होकर मनुष्य नरक के कुएँ में गिरता है।
इसी विषय में लिखित कुछ आंतरश्लोकों का भावार्थ यहां प्रस्तुत करते हैं
द्रव्यादिक पर रति, प्रीति, मोह या आसक्ति को राग कहते हैं और उन्हीं पर अरति, अरुचि, घृणा या ईर्ष्या को द्वेष कहते हैं। राग और द्वेष, ये दोनों सभी जीवों के लिए महाबंधन है। इन्हें ही समस्त दुःख रूपी वृक्ष के मूल और | स्कन्ध कहा है। यदि जगत् में राग और द्वेष ये दोनों न होते तो सुख को देखकर कौन विस्मित और हर्षित होता? दुःख
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