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मनो विजय
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ४० से ४४ अब इंद्रियविजय में कारणभूत मनःशुद्धि की प्रशंसा करते हैं।३६६। दीपिका खल्वनिर्वाणा, निर्वाणपथदर्शिनी । एकैव मनसः शुद्धिः, समाम्नाता मनीषिभिः ॥४०॥ अर्थ :- पूर्बाचार्यों ने माना है कि-यम-नियम आदि के बिना अकेली मनःशुद्धि भी ऐसी दीपिका है, जो कभी
बुझती नहीं और सदा निर्वाणपथ दिखाने वाली है ॥४०॥ भावार्थ :- कहा भी है-ज्ञान, ध्यान, दान, मान, मौन आदि शुभयोग में कोई अत्यंत उद्यम करता हो, लेकिन उसका मन साफ (निर्मल) न हो तो उसका वह उद्यम राख में घी डालने जैसा समझना चाहिए ।।४।।
अब अन्वय-व्यतिरेक से मनःशुद्धि से अन्यान्य लाभ बताने की दृष्टि से उपदेश देते हैं३६७। सत्यां हि मनसः शुद्धौ, सन्त्यसन्तोऽपि यद् गुणाः । सन्तोऽप्यसत्यां नो सन्ति, सैव कार्या बुधैस्ततः ॥४१॥ अर्थ :- यदि मन की शुद्धि हो और दूसरे गुण न हों, तो भी उनके फल का सद्भाव होने से क्षमा आदि गुण
रहते ही हैं। इसके विपरीत, यदि मन की शुद्धि न हो तो दूसरे गुण होने पर भी क्षमा आदि गुण नहीं है, क्योंकि उसके फल का अभाव है। इस कारण विवेकी पुरुषों को अवश्य ही फलदायिनी मनःशुद्धि
करनी चाहिए ॥४१।। .. जो ऐसा कहते हैं कि 'मनःशुद्धि की क्या आवश्यकता है? हम तो तपोबल से मुक्ति प्राप्त कर लेंगे। उन्हें प्रत्युत्तर देते हैं।३६८। मनः शुद्धिमबिभ्राणा, ये तपस्यन्ति मुक्तये । त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते, तितीर्षन्ति महार्णवम् ॥४२॥ अर्थ :- जो मनुष्य मनःशुद्धि किये बिना मुक्ति के लिए तपस्या का परिश्रम करते हैं; वे नौका को छोड़कर भुजाओं
से महासागर को पार करना चाहते हैं ॥४२।। 'तप-सहित ध्यान मुक्ति देने वाला है' यों कहकर जो मनःशुद्धि की उपेक्षा करते हैं और 'ध्यान ही कर्मक्षय का कारण है' ऐसा प्रतिपादन करते हैं, उन्हें उत्तर देते हैं।३६९। तपस्विनो मनःशुद्धिं, विनाभूतस्य सर्वथा । ध्यानं खलु मुधा, चक्षुर्विकलस्येव दर्पणः ॥४३।।
अर्थ :- अंधे के लिए जैसे दर्पण व्यर्थ है, उसी प्रकार मनःशुद्धि के बिना कोरे तपस्वी का ध्यान करना सर्वथा - निरर्थक है ।।४३।।
भावार्थ :- यद्यपि मनःशुद्धि के बिना तप और ध्यान के बल से नौ ग्रैवेयक तक व्यक्ति चला जाता है। ऐसा सुना जाता है। परंतु वह कथन प्रायिक समझना चाहिए। और ग्रैवेयक प्राप्ति तो संसारफल है; जिसे फल की गणना में नहीं माना गया है। जिसका फल मोक्ष हो, उसे ही यहां फल माना गया है। इसलिए मनःशुद्धि के बिना कोरे ध्यान से मोक्षफल की अपेक्षा रखना व्यर्थ है। यद्यपि दर्पण रूप देखने का साधन है। परंतु जिसके आंखें नहीं है, उसके लिए दर्पण बेकार है। इसी तरह मनःशद्धि के बिना ध्यान व्यर्थ है ।।४३।।
अब उपसंहार करते हैं||३७०। तदवश्यं मनःशुद्धिः कर्तव्या सिद्धिमिच्छता । तपःश्रुत-यमप्रायैः किमन्यैः कायदण्डनैः? ॥४४॥ अर्थ :- अतः सिद्धि (मुक्ति) चाहने वाले साधक को मन की शुद्धि अवश्य करनी चाहिए। अनशन रूप तप, श्रुत
(शास्त्र) का स्वाध्याय, महाव्रत रूप यम और भी दूसरे नियम रूप अनुष्ठान करने से सिवाय कायक्लेश
(शरीर को दंड देने) से और क्या लाभ मिलेगा? ॥४४॥ व्याख्या :- यहां यह बात भी जोड़नी चाहिए कि 'मन की शुद्धि कैसे होती है? लेश्या की विशुद्धि से मन की निर्मलता होती है। इसलिए प्रसंगवश यह बताते हैं कि लेश्याएँ कौन-कौन सी हैं? लेण्याओं का वर्णन :___लेश्याएँ छह हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल। कर्मवर्गणा के अनुरूप वर्णद्रव्य की सहायता से आत्मा में तदनुरूप परिणामों का आना लेश्या है। यद्यपि आत्मा तो स्फटिक के समान निर्मल-स्वच्छ है। किन्तु कृष्ण
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