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अनियंत्रित मन और उसके निरोध के उपाय
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ३५ से ३९ व्यक्तियों को तो मनःशुद्धि स्वाभाविक होती है और कई लोगों को यम-नियम आदि उपायों से मन को नियंत्रित करने | पर होती है ॥३४॥
अनियंत्रित मन क्या करता है? इसके बारे में आगामी श्लोक में कहते हैं।३६१। मनः क्षपाचरो भ्राम्यन्नपशकं निरङ्कुशः । प्रपातयति संसाराऽऽवर्तगर्ते जगत् त्रयीम् ।।३५।। अर्थ :- निरंकुश मन राक्षस की तरह निःशंक होकर भाग-दौड़ करता है और तीनों जगत् के जीवों को संसार
रूपी भँवरजाल के गड्ढे में गिरा देता है ।।३५। व्याख्या :- मन दो प्रकार का है-द्रव्यमन और भावमन। विशिष्ट आकार में परिणत पुद्गल, द्रव्यमन है; जबकि उन पुद्गलद्रव्यों की उपाधि से उत्पन्न होने वाले संकल्प रूप आत्मपरिणाम भावमन है। मन ही संकल्प रूप राक्षस है, जिसका स्वभाव दुर्विषयों में प्रवृत्ति कराने का है। इस कारण यह उस-उस विषय में स्थिरता का अवलंबन नहीं लेता। मन कैसे भ्रमण करता है? इसके उत्तर में कहते हैं-निःशंकता से। स्वरूप भावना के प्रदेश से निर्गत मन निरंकुश होकर | संसार रूपी आवर्त के गड्ढे में ऐसा गिरता है कि उससे बाहर निकलना भी कठिन हो जाता है। तीनों लोकों में ऐसा कोई भी जीव न होगा, जिसे निरंकुश मन ने संसार रूपी गर्त में न गिराया हो ।।३५।।
पुनः अनियंत्रित मन के दोष बताते हैं||३६२। तप्यमानांस्तपो मुक्तौ, गन्तुकामान् शरीरिणः । वात्येव तरलं चेतः क्षिपन्त्यन्यत्र कुत्रचित् ॥३६।। अर्थ :- मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुकों और कठोर तपश्चर्या करने वाले शरीरधारियों को भी अस्थिर (चंचल) मन
यानी भावमन आंधी की तरह कहीं का कहीं फैंक देता है ।।६।। अनियंत्रित मन के और भी दोष प्रकट करते हैं।।३६३। अनिरुद्धमनस्कः सन्, योगश्रद्धां दधाति यः । पद्भ्यां जिगमिषुर्गामं स पङ्गुरिव हस्यते ॥३७॥ अर्थ :- मन का निरोध किये बिना ही जो मनुष्य योग प्राप्त होने का विश्वास कर लेता है। उसकी वह योगश्रद्धा
लंगड़े आदमी द्वारा दूसरे गांव जाने की इच्छा की तरह विवेकी लोगों में हंसी का पात्र बनती है।।३७।। मनोनिरोध न करने से केवल योगश्रद्धा ही निष्फल है, इतना ही नहीं, ऐसा चंचल मन अनेक अशुभकर्मों को आने का न्यौता दे देता है। इस बात को आगामी श्लोक के उत्तरार्द्ध से बताकर पूर्वार्द्ध से मनोनिरोध का फल बताते हैं।३६४। मनोरोधे निरुध्यन्ते, कर्माण्यपि समन्ततः । अनिरुद्धमनस्कस्य, प्रसरन्ति हि तान्यपि ॥३८॥ अर्थ :- विषयों से मन को रोक लेने से चारों ओर से कर्मों के आगमन (आस्रव) रुक जाते हैं। जो मनुष्य मन
का निरोध नहीं करता, उसके कर्म चारों ओर से बढ़ते जाते हैं ॥३८॥
:- मनोनिरोध से ज्ञानावरणीय आदि कर्म आने से रुक जाते हैं, क्योंकि कर्मों का आगमन (आस्रव) मन के अधीन है। जो मन का निरोध नहीं करता, वह कर्मों को बढ़ाता है; क्योंकि कर्मबंधन निरंकुश मन के अधीन है। इसलिए मन पर नियंत्रण करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए ।।३८।।
इसी बात को कहते हैं।३६५। मनः कपिरयं विश्वपरिभ्रमणलम्पट: । नियन्त्रणीयो यत्नेन, मुक्तिमिच्छुभिरात्मनः ॥३९॥ अर्थ :- मन बंदर है, ऐसा बंदर, जो सारे विश्व में भटकने का शौकीन है। अतः मोक्षाभिलाषी पुरुष को अपने |
मन-मर्कट को प्रयत्नपूर्वक वश में करना चाहिए ।।३९।। व्याख्या :- मन बंदर की तरह चंचल है; यह बात सर्वत्र अनुभवसिद्ध है। मन और बंदर की समानता बताते हैं-बंदर जैसे जंगल में स्वच्छंद भटकता है, उसके भ्रमण पर कोई अंकुश नहीं होता; वैसे ही मन भी विश्व रूपी अरण्य में बेरोकटोक भटकता है। इसीलिए कहा है-मन भिन्न-भिन्न विषयों को पकड़कर चंचलता पूर्वक भ्रमण करने का शौकीन है। ऐसे अनियंत्रित मन की चपलता को छुड़ाकर उसे उचित विषयों में लगा देना चाहिए। वह कैसे लगाया जाय? अभ्यास रूपी प्रयत्न से। ऐसा कौन करे? आत्मा की मुक्ति का इच्छुक। आशय यह है कि मन की चपलता को रोकने वाला ही मुक्ति की साधना में समर्थ हो सकता है ।।३९।।
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