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इंद्रियों के दोष एवं उन पर विजय
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक २८ से ३३ इंद्रियाँ जिसके वश में नहीं, उसे चंडप्रद्योत राजा की तरह बंधन में डाल देती है। इंद्रियों के वशवर्ती मनुष्य रावण के समान मौत के मेहमान बनते हैं। इसकी कथा पहले आ चुकी है। ___ यहां इस विषय के कुछ आंतर श्लोक हैं, जिनका भावार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं-इंद्रियों के विषयों में आसक्त होकर कौन-सा जीव विडंबना नहीं पाता? और तो और शास्त्र के परमार्थ को जानने वाले शास्त्रार्थमहारथी भी बालकवत् चेष्टा करते हैं। बाहुबलि पर भरतचक्री ने चक्र-महास्त्र फेंका था, फिर भी बाहुबलि की विजय हुई और भरत की पराजय। यह सब इंद्रियों का ही नाटक था! वे तो उसी भव में मोक्ष जाने वाले थे, फिर भी उन्होंने शस्त्रास्त्रों से संग्राम किया था। वस्तुतः गृहस्थ तो दुरंत इंद्रियों से बार-बार दंडित होते हैं; यह बात तो समझ में आती है; मगर प्रशांतमोही पूर्वधर साधक इंद्रियों से दंडित होते हैं. यह बात आश्चर्यजनक है। खेद है. देव, दानव और मानव इंद्रियों से अधिक पराजित हुए हैं। बेचारे कितने बड़े तपस्वी होते हुए भी कुत्सित कार्य करने में पीछे नहीं रहते। इंद्रियों के वशीभूत होकर मनुष्य अभक्ष्यभक्षण कर जाते हैं; अपेय पदार्थ भी पी जाते हैं, असेव्य का भी सेवन करते हैं। इंद्रियाधीन लाचार बना हुआ मनुष्य अपने कुलशील का त्याग करके निर्लज्ज होकर वेश्या के यहां नीच कार्य एवं गुलामी भी करता है। मोहांध पुरुष परद्रव्य और परस्त्री में जो प्रवृत्ति करता है, उसे अस्वाधीन इंद्रियों का नाटक समझना। जीवों के हाथ, पैर, इंद्रियों और अंगों को काट लिया जाता है, यहां तक कि उन्हें मार डाला जाता है, उन सब में इंद्रियों की गुलामी ही कारण है। इसलिए दूर से ही प्रणाम हो, ऐसी इंद्रियों को! जो दूसरों को विनय का उपदेश देते हैं और स्वयं इंद्रियों के आगे हार
खा जाते हैं, उन्हें देखकर विवेकी पुरुष मुंह पर हाथ ढककर हंसते हैं। इस जगत में चींटी से लेकर इंद्र तक जितने | भी जीव है, इनमें केवल वीतराग को छोड़कर सभी इंद्रियों से पराजित होते हैं ।।२७।।
इस प्रकार सामान्य रूप से इंद्रियों के दोष बताये। अब स्पर्शन आदि प्रत्येक इंद्रिय के पृथक्-पृथक् दोष पांच श्लोकों में बताते हैं।३५४। वशास्पर्शसुखास्वादप्रसारितकरः करी । आलानबन्धनक्लेशमासादयति तत्क्षणात् ॥२८॥ ।३५५। पयस्यगाधे विचरन् गिलन् गलगतामिषम् । मैनिकस्य करे दीनो, मीनः पतति निश्चितम् ॥२९।। ।३५६। निपतन्मत्तमातङ्गकपोले गन्धलोलूपः । कर्णतालतलाघाताद्, मृत्युमाप्नोति षट्पदः ॥३०॥ ।३५७। कनकच्छेदसङ्काशशिखालोकविमोहितः । रभसेन पतन् दीपे, शलभो लभते मृतिम् ॥३१॥ ।३५८। हरिणो हारिणी गीतमाकर्णयितुमुद्धरः । आकर्णाकृष्टचापस्य याति व्याधस्य वेध्यताम् ॥३२॥ अर्थ :- हथिनी के स्पर्श-सुख का स्वाद लेने के लिए सूंड फैलाता हुआ हाथी क्षणभर खंभे के बंधन में पड़कर |
क्लेश पाता है ॥२८॥ अगाध जल में रहने वाली मछली जाल में लगे हुए लोहे के कांटे पर मांस का टुकड़ा खाने के लिए ज्यों ही आती है, त्यों ही निःसंदेह वह बेचारी मच्छीमार के हाथ में आ जाती है ।।२९।। मदोन्मत्त हाथी के गंडस्थल पर गंध में आसक्त होकर भौंरा बैठता है, परंतु उसके कान की फटकार से मृत्यु का शिकार हो जाता है ॥३०॥ सोने के तेज के समान चमकती हुई दीपक की लौ के प्रकाश को देखकर पतंगा मुग्ध हो जाता है और दीपक पर टूट पड़ता है। जिससे वह मौत के मुंह में चला जाता है ।।३१।। मनोहर गीत सुनने में तन्मय बना हुआ हिरन कान तक खींचे हुए शिकारी के बाण से बिंध जाता है।
मृत्यु को प्राप्त करता है ।।३।। इसका उपसंहार करते हुए कहते हैं||३५९। एवं विषम एकैकः, पञ्चत्वाय निषेवितः । कथं हि युगपत् पञ्च, पञ्चत्वाय भवन्ति न? ॥३३।। | अर्थ :- इस प्रकार स्पर्शन, रसना, नासिका, चक्षु और कर्ण इन पांचों इंद्रियों में से एक-एक इंद्रिय का विषय |
भी सेवन करने पर मृत्यु का कारण हो जाता है तो एक साथ पांचों इंद्रियों के विषयों का सेवन करने से मृत्यु का कारण क्यों नहीं होगा? अवश्यमेव होगा ।।३३।।
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