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इंद्रियों के दोष एवं उन पर विजय
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ३४ भावार्थ :- कहा है कि 'एक में आसक्त होने से पांचों इंद्रियों का नाश कराता है तो एक साथ जो पांचों इंद्रियों के विषयों में मूढ़ बनकर आसक्त होता है, वह तो मरकर भस्मीभूत ही हो जाता है ।।३३।।
इंद्रियों के दोष कहकर अब उन पर विजय प्राप्त करने का उपदेश देते हैं।।३६०। तदिन्द्रियजयं कुर्यात्, मनः शुद्ध्या महामतिः । यां विना यम-नियमैः, कायक्लेशो वृथा नृणाम् ॥३४॥ अर्थ :- इसलिए महाबुद्धिमान साधक मन की शुद्धि द्वारा इंद्रियों पर विजय प्राप्त करे। क्योंकि इंद्रियों पर विजय
प्राप्त किये बिना यम-नियमों का पालन करना मनुष्यों के लिए व्यर्थ ही कायक्लेश (शरीर को कष्ट देना)
है ॥३४॥ व्याख्या :- इंद्रियाँ द्रव्य और भाव से दो प्रकार की है। चमड़ी, जीभ, नासिका, आंख और कान यह आकाररूप परिणत जो पुद्गलद्रव्य रूप है, वे द्रव्य-इंद्रिय है और स्पर्श, रस, गंध, दर्शन तथा श्रवण रूप विषयों की अभिलाषा करना भावेन्द्रिय है। उसकी आसक्ति का त्याग करना तथा उस पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
इस संबंध में आंतर श्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं-इंद्रियसमूह से पराजित जीव अनेक दुःखों से परेशान रहता है। इसलिए सभी दुःखों से मुक्त होने हेतु इंद्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए। इस विषय में सर्वथा प्रवृत्ति बंद कर देना, इंद्रियविजय नहीं है, अपितु प्रवृत्ति राग-द्वेष से रहित हो; तभी इंद्रियविजय कहलाता है। इंद्रियों के निकटस्थ विषयों के संयोग को हटाना असंभव है; इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति उक्त विषय के निमित्त से होने वाले राग-द्वेष का त्याग करते हैं। संयम-योगी की इंद्रियां सदा मारी हई दोनों प्रकार की होती है। हितकर संयम-योग में इंद्रियाँ बिना मारी हई रहती है और प्रमाद आदि अहितकर योगों में मारी हुई रहती है। अर्थात् यमनियमों के पालन में इंद्रियों को मारे (हनन किये) बिना ही वे संयमाराधना में तत्पर रहती है, लेकिन विषय, कषाय, प्रमाद आदि में इंद्रियाँ मारी (हनन की) जाती है। इंद्रियों को जीतने का रहस्य यही है। इंद्रियविजय से मोक्ष होता है और इंद्रियों से पराजित होने पर संसार में परिभ्रमण! दोनों का अंतर जानकर जो हितकर (अच्छा) लगे उसी पर चलो। रूईभरे गद्दे आदि के मुलायम पत्थर आदि के कठोर स्पर्श पर होने वाली रति-अरति पर कर्मबंध का सारा दारोमदार (आधार) है। अतः स्पर्श के प्रति होने वाली रति-अरति का त्याग करके स्पर्शेन्द्रियविजेता बन। सेवन करने योग्य स्वादिष्ट एवं सरस वस्तु पर प्रीति और नीरस पदार्थों पर अप्रीति को छोड़कर भलीभांति जिह्वेन्द्रिय-विजयी बन। सुगंधित पदार्थ मिले या दुर्गधि पर्याय और परिणाम जानकर राग-द्वेष किये बिना तं घ्राणेन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर। मन और आंखों को आनंद देने वाले मनोहर रूप देखकर और उसके विपरीत कुरूप देखकर हर्ष या घृणा किये बिना नेत्रेन्द्रिय पर विजयी बन। वीणा और अन्य वाद्यों के मधुर कर्णप्रिय स्वरलहरी के प्रति राग और भद्दे, बीभत्स, कर्णकटु कर्कश और अपमानित करने वाले गधे, ऊंट आदि के शब्द सुनकर द्वेष या रोष किये बिना कर्णेन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर। इस जगत् में कोई भी पदार्थ | ऐसा नहीं है, जो एकांत मनोहर हो या सर्वथा अमनोहर; जिसका इंद्रियों ने आज तक सभी जन्मों में अनुभव नहीं किया हो। फिर तूं उसमें माध्यस्थभाव क्यों नहीं रखता? तूं शुभविषयों के प्रति अशुभत्व और अशुभवस्तु के प्रति शुभत्व की कल्पना करता है; फिर अपनी इंद्रियों को कैसे राग से मुक्त और विराग से युक्त बनाएगा? तूं जिस कारण से किसी वस्तु के लिए कहता है कि इसके प्रति प्रीति (मोह) होनी चाहिए, उसी पर घृणा और द्वेष हो सकता है! वस्तुतः पदार्थ अपने आप में न शुभ है, न अशुभ; मनुष्य की अपनी दृष्टि ही शुभ या अशुभ होती है। अतः विरक्तचित्त होकर इंद्रियविषयों के आश्रव रूप राग-द्वेष का त्याग और इंद्रियविजेता बनने का मनोरथ करना चाहिए।
इन दुर्जेय इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने का क्या उपाय है? उसे बताते हैं-प्रथम तो मन की निर्मलता आवश्यक है, साथ ही यमनियम का पालन भी जरूरी है। वृद्धसेवा तथा शास्त्राभ्यास आदि भी इंद्रियविजय के कारण है। इन सब में असाधारण कारण तो मन की शुद्धि है। दूसरे कारण ऐकांतिक और आत्यंतिक नहीं है। मन की निर्मलता के बिना यम-नियमादि होने पर भी वे इंद्रियविजय के कारण नहीं हो सकते। इसी श्लोक में कहा है-तां विना यमनियमौ इत्यादि। यम यानी पंचमहाव्रत रूप मूलगुण और नियम यानी पिंडविशुद्धि-समितिगुप्ति रूप उत्तरगुण, उपलक्षण से वृद्धसेवा आदि कायपरिश्रम। किन्तु मनःशुद्धि के बिना यह सारा पुरुषार्थ निष्फल है। मरुदेवी आदि की तरह कई
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