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कषाय-स्वरुप
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ८ से १० इस तरह काल का नियम करने पर भी संज्वलन आदि लक्षण में अभी अपूर्णता होने से दूसरे लक्षण आगे बताते
।३३४। वीतराग-यति-श्राद्ध-सम्यग्दृष्टित्वघातकाः । ते देवत्व-मनुष्यत्व-तिर्यक्त्व-नरकप्रदाः ॥८॥ अर्थ :- वे संज्वलनादि चार कषाय क्रमशः वीतरागत्व, साधुत्व, श्रावकत्व और सम्यक्त्व का घात करते हैं तथा
ये क्रमशः देवत्व, मनुष्यत्व, तिर्यक्त्व और नरकत्व प्राप्त कराते हैं ।।८।। __व्याख्या :- 'त्व' प्रत्यय सभी के साथ जोड़ने से अर्थ हुआ - कषाय चतुष्ट वीतरागत्व, साधुत्व, श्रावकत्व और सम्यक्त्व का क्रमशः घात करता है। वह इस प्रकार संज्वलन-क्रोधादि कषाय के उदय में साधुत्व तो होता है, परंतु वीतरागत्व नहीं रहता, प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय में श्रावकत्व तो रहता है, किन्तु साधुत्व नहीं रहता, अप्रत्याख्यानावरणीय के उदय में सम्यग्दृष्टित्व तो रहेगा, परंतु देशविरतिश्रावकत्व नहीं रहेगा और अनंतानुबंधी कषाय के उदय में सम्यग्दृष्टित्व भी नहीं रहता है। इस तरह संज्वलन वीतरागत्व का घात, प्रत्याख्यानावरणीय साधुत्व का घात, अप्रत्याख्यानावरणीय श्रावकत्व का घात और अनंतानुबंधी सम्यक्त्व का घात करता है। इस तरह स्पष्ट लक्षण बताया। अब श्लोक के उत्तरार्ध में कषायों का फल कहते हैं-संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ के रहते देवगति का फल मिलता है, प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि के रहते मनुष्यगति, अप्रत्याख्यनावरण कषाय के होने से तिर्यंचगति और अनंतानुबंधी कषाय से नरकगति मिलती है। अब इन संज्वलनादि चार कषायों का स्वरूप उपमा देकर समझाते हैं-संज्वलन आदि चार प्रकार का क्रोध क्रमशः जल में रेखा, रेत में रेखा, पृथ्वी पर रेखा और पर्वत की रेखा के समान होता है। तथा चार प्रकार का मान बेंत की छड़ी के समान, काष्ठ की लकड़ी के समान, हड्डी के समान और पत्थर के स्तंभ के समान होता है। चार प्रकार की माया बांस की छाल के समान लकड़ी की छाल के समान, मेंढे के सींग के समान और बांस की जड़ के समान है और चार प्रकार का लोभ हल्दी के रंग के समान, सकोरे में लगे मैल के समान, गाड़ी के पहिये के कीट के समान तथा किरमिची रंग के समान होता है ।।८।।
अब चारों कषायों के अधीन होने से होने वाले दोष बतलाते हैं।३३५। तत्रोपतापकः क्रोधः क्रोधो वैरस्य कारणम् । दुर्गतेर्वर्तनी क्रोधः क्रोधः शमसुखार्गला ॥९॥ अर्थ :- इन चारों में प्रथम कषाय क्रोध शरीर और मन दोनों को संताप देता है; क्रोध वैर का कारण है, क्रोध
दुर्गति की पगडंडी है और क्रोध प्रशमसुख को रोकने के लिए अर्गला के समान है ।।९।। व्याख्या :- इस श्लोक में क्रोधशब्द का बार-बार प्रयोग इसलिए किया गया है कि क्रोध अत्यंत दुष्ट और हानिकारक है, आत्मा के लिए। यह अग्नि की तरह अपने आपको और पास में रहे हुए को संताप से जला डालता है। क्रोध से वैर परंपरा इसी तरह बढ़ती जाती है, जैसे सुभूम और परशुराम वैरी बनकर परस्पर एक दूसरे के घातक हो गये थे। क्रोध दुर्गति यानी नरकगति में ले जाने वाला है ।।९।।
क्रोध स्वयं को कैसे जलाता है, इसका समर्थन आगामी श्लोक में करते हैं।३३६। उत्पद्यमानः प्रथम, दहत्येव स्वमाश्रयम् । क्रोधःकृशानुवत् पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥१०॥ अर्थ :- किसी प्रकार का निमित्त पाकर क्रोध उत्पन्न होते ही सर्व प्रथम आग की तरह अपने आश्रय स्थान
(जिसमें वह उत्पन्न होता है, उसी) को ही जलाता है। बाद में अग्नि की तरह दूसरे को जलाए, चाहे न भी जलाए। यदि सामने वाला व्यक्ति क्षमाशील होगा तो गीले वृक्ष के समान उसे जला नहीं
सकेगा।।१०।। व्याख्या :- यहां पर क्रोध के विषय में आंतर-श्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं.. कोई साधक आठ वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष तक चारित्र की आराधना करे, उतने ही वर्ष के तप को क्रोध रूपी आग क्षणभर में घास के ढेर के समान जलाकर भस्म कर देती है। अतिशय पुण्यपुंज से पूर्ण घट में संचित किया हुआ, समता | रूपी जल क्रोध रूपी विष के संपर्क मात्र से पलभर में अपेय बन जाता है। क्रोधाग्नि का धुंआ फैलता-फैलता रसोईघर की तरह आश्चर्यकारी गुणों के धारक चारित्र रूपी चित्र की रचना को अत्यंत श्याम कर देता है। वैराग्य रूपी शमीवृक्ष
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