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।। ॐ अर्हते नमः ।। ४. प्रकाश
पहले के तीन प्रकाशों में धर्म और धर्मी के भेदनय की अपेक्षा से ज्ञानादि रत्नत्रय को आत्मा की मुक्ति का कारण रूप निरूपण किया है। अब अभेदनय की अपेक्षा से आत्मा के साथ ज्ञानादि रत्नत्रय के एकत्वभाव का निरूपण करते
।३२७। आत्मैव दर्शन-ज्ञान-चारित्राण्यथवा यतेः । यत् तदात्मक एवैष, शरीरमधितिष्ठति ॥१॥ अर्थ :- अथवा यति-(साधु) का आत्मा ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप है; क्योंकि दर्शनादिरत्नत्रयात्मक
आत्मा शरीर में रहता है ॥१॥ व्याख्या :- मूल श्लोक में 'अथवा' शब्द का प्रयोग अभेदनय की अपेक्षा से दूसरा विकल्प बताने के लिए किया है। आत्मा ही दर्शन-ज्ञान-चारित्र-स्वरूप है; दर्शनादि आत्मा से भिन्न नहीं है। यति (मुनि) का आत्मा के साथ संबंध जोड़ना, दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप आत्मा ही यति के शरीर में स्थित है। दर्शनादि आत्मा से अलग नहीं है, आत्मस्वरूप है। इसीसे वह (रत्नत्रय) मुक्ति का कारण रूप बनता है। आत्मा से भिन्न हो, वह मुक्ति का कारण नहीं बन सकता। देवदत्त के ज्ञानादि से, यज्ञदत्त को मुक्ति नहीं मिल सकती ।।१।। अभेद का समर्थन करते हैं।३२८। आत्मानमात्मना वेत्ति, मोहत्यागाद्य आत्मनि । तदेव तस्य चारित्रं, तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ।।२।। __अर्थ :- आत्मा को आत्मा स्वयं जानता है; ऐसा ज्ञान मूढ़-व्यक्ति को नहीं होता, अतः कहा है कि मोह का त्याग
करने से आत्मा अपनी आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा को जानता है, वही उसका चारित्र है, वही ज्ञान
है और वही श्रद्धा रूपी दर्शन है ।।२।। अब आत्मज्ञान की स्तुति करते है।३२९। आत्माऽज्ञानभवं दुःखमात्मज्ञानेन हन्यते । तपसाऽप्यात्मविज्ञानहीनैश्छेत्तुं न शक्यते ॥३॥ अर्थ :- आत्मा को अज्ञान के कारण दुःख होता है और वह दुःख आत्मज्ञान से ही नष्ट किया जाता है। जो |
आत्मज्ञान से रहित है, वे मनुष्य तपस्या आदि से भी दुःख का छेदन नहीं कर सकते ।।३।। व्याख्या :- इस संसार में आत्मज्ञान के बिना सभी प्रकार के दुःख प्राप्त होते है। जैसे प्रकाश से अंधकार का नाश होता है, वैसे ही प्रतिपक्षभूत आत्मज्ञान के द्वारा दुःख का नाश होता है। इस विषय में कई लोग शंका उठाते हैं कि 'कर्मक्षय करने का मुख्य कारण तो तप है, ज्ञान नहीं है, इसलिए कहा भी है कि पहले विपरीत आचरण से कर्मबंध किया हो उसका प्रतिक्रमण नहीं किया हो ऐसे कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, अथवा तपस्या करके कर्मों का क्षय कर मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। इसका समाधान यों करते हैं कि-अज्ञानी आत्मा दुःख को तपस्या या अन्य किसी अनुष्ठान से काट नहीं सकता। आत्मा विशुद्धज्ञान से ही दुःख का छेदन कर सकता है, ज्ञान के बिना तप अल्पफलदायी होता है। कहा भी है-करोड़ वर्ष तक तप करके अज्ञानी जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों को तीन गुप्तिधारक ज्ञानी एक श्वासोच्छ्वास मात्र में क्षय कर लेता है। (बृहत्कल्प भाष्य गाथा ११७०) इससे यह फलित हुआ कि बाह्यपदार्थों या इंद्रियविषयों का त्यागकर रत्नत्रय के सर्वस्वभूत आत्मा में प्रयत्न करना चाहिए। अन्यदर्शनी कहते हैं-आत्मा वारे श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्यश्च अर्थात् 'अरे! यह आत्मा श्रवण करने योग्य मनन करने योग्य और ध्यान करने योग्य है।' (बृहदारण्य ४/५/६) आत्मज्ञान, आत्मा से जरा भी भिन्न नहीं है। परंतु ज्ञान स्वरूप आत्मा को आत्मा अपने अनुभव से जान सकता है। इससे भिन्न कोई आत्मज्ञान नहीं है। इसी तरह दर्शन और चारित्र भी आत्मा से भिन्न नहीं है। इस प्रकार का चिदरूप आत्मा ज्ञानादि के नाम से भी पुकारा जाता है। यहां शंका होती है कि 'अन्य विषयों को छोड़कर इसे आत्मज्ञान ही क्यों कहा जाता है? अन्य विषयों का ज्ञान भी तो अज्ञान रूप दुःख
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