________________
लोभ पर विजय पाने का मुख्य उपाय- संतोषधारण
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १९ से २२ | | ३४५ | धनहीनः शतमेकं सहस्त्रं शतवानपि । सहस्राधिपतिर्लक्षं, कोटिं लक्षेश्वरोऽपि च ॥१९॥ | | ३४६ | कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं, नरेन्द्रश्चक्रवर्त्तिताम् । चक्रवर्ती च देवत्वं, देवोऽपीन्द्रत्वमिच्छति ॥२०॥ | | ३४७ | इन्द्रत्वेऽपि हि सम्प्राप्ते, यदीच्छा न निवर्त्तते । मूले लघीयांस्तल्लोभः शराव इव वर्धते ॥२१॥
अर्थ :- निर्धन मनुष्य सौ रुपये की अभिलाषा करता है, सौ पाने वाला हजार की इच्छा करता है और हजार रुपयों का स्वामी लाख रुपये पाना चाहता है, लक्षाधिपति करोड़ की लालसा करता है और कोटीपति राजा बनने का स्वप्न देखता है, राजा को चक्रवर्ती बनने की धुन सवार होती है और चक्रवर्ती को देव बनने की लालसा जगती है। देव भी इंद्रपद प्राप्त करना चाहता है। मगर इंद्रपद प्राप्त होने पर भी तो इच्छा का अंत नहीं आता है। अतः प्रारंभ में थोड़ा-सा (छोटा-सा ) लोभ होता है, वही बाद में शैतान की तरह बढ़ता जाता है ।।१९ - २१ ।।
व्याख्या :
लोभ के संबंध में प्रस्तुत आंतरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं- जैसे सभी पापों में हिंसा बड़ा पाप है, | सभी कर्मों में मिथ्यात्व महान् है और समस्त रोगों में क्षयरोग महान् है, वैसे ही सब अवगुणों में लोभ महान् अवगुण है । अहा ! इस भूमंडल पर लोभ का एकछत्र साम्राज्य है। लोभ के कारण ही एकेन्द्रिय पेड़पौधे भी निधान मिलने पर उसे अपनी जड़ में दबाकर पकड़कर ढक रखते हैं, धन के लोभ से विकलेन्द्रिय जीव भी गाड़े हुए निधान पर | मूर्च्छापूर्वक जगह बनाकर रहते हैं। सर्प, गोह, नेवले, चूहे आदि पंचेन्द्रिय जीव भी धन के लोभ से निधान वाली जगह | पर आसक्ति वश बैठे रहते हैं । पिशाच, मुद्गल, भूत, प्रेत, यक्ष आदि अपने या दूसरे के धन पर लोभ व मूर्च्छावश निवास करते हैं। आभूषण, उद्यान, बावड़ी आदि पर मूर्च्छाग्रस्त होकर देवता भी च्यवकर पृथ्वीकायादि योनि में उत्पन्न होते हैं। साधु उपशांतमोह-गुणस्थान तक पहुंचकर क्रोधादि पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी एकमात्र अल्पलोभ के दोष के कारण नीचे के गुणस्थानों में आ गिरता है। मांस के टुकड़े के लिए जैसे कुत्ते आपस में लड़ते हैं, वैसे ही एक माता के उदर में जन्मे हुए सगे भाई भी थोड़े से धन के लिए परस्पर लड़ते हैं। लोभाविष्ट मनुष्य गांव, पर्वत एवं वन की | सीमा पर अधिकार जमाने के लिए सहृदयता को तिलांजलि देकर ग्रामवासी राज्याधिकारी, देशवासी और शासकों में | परस्पर फूट डालकर विरोध पैदा करके उन्हें एक दूसरे का दुश्मन बना देता है। अपने में हास्य, शोक, द्वेष या राग की अतिमात्रा न होने पर भी मनुष्य लोभ के कारण मालिक के आगे नट की तरह नाचता है, उसका प्रेमभाजन बनने का नाटक करता है लोभ रूपी गड्ढे को भरने का ज्यों-ज्यों प्रयत्न किया जाता है, त्यों-त्यों वह अधिकाधिक गहरा होता (बढ़ता जाता है। आश्चर्य है, समुद्र तो कदाचित् जल से पूरा भर सकता है, परंतु तीनों लोकों का राज्य मिलने पर भी | लोभ-समुद्र नहीं भरता । मनुष्य ने अनंतवार भोजन, वस्त्र, विषय एवं द्रव्यपुंज का उपभोग किया है, मगर तब भी उनके मन में लोभ का अंश कम नहीं होता। यदि लोभ छोड़ दिया है तो तप से क्या प्रयोजन और अगर लोभ नहीं छोड़ा है, तो भी निष्फल तप से क्या प्रयोजन ? समस्त शास्त्रों के परमार्थ का मंथन कर मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि | महामतिमान साधक को सिर्फ एकमात्र लोभ को नष्ट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए ।।१९ - २१ ।।
अब लोभ - विजय का उपाय बताते हैं
।३४८। लोभसागरमुद्वेलमतिवेलं महामतिः । सन्तोषसेतुबन्धेन, प्रसरन्तं निवारयेत् ॥२२॥ अर्थ :- लोभ रूपी समुद्र को पार करना = लांघना अत्यंत कठिन है। उसके बढ़ते हुए ज्वार को रोकना दुष्कर है। अतः महाबुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि संतोष रूपी पुल बांधकर उसे आगे बढ़ने से रोक ले ।। २२ ।। व्याख्या :- संतोष लोभ का प्रतिपक्षी मनोधर्म है। जैसे जल को रोकने के लिए बांध बांधा जाता है, वैसे ही लोभकषाय को रोकने और उस पर विजय पाने के लिए संतोष रूपी बांध बांधा जाना चाहिए।
इस विषय में कुछ आंतरश्लोक है, जिनका भावार्थ यहां प्रस्तुत करते हैं- जैसे मनुष्यों में चक्रवर्ती और देवों में
| इंद्र सर्वोत्तम माना जाता है, वैसे ही सब गुणों में संतोष सर्वोत्तम गुण माना जाता है। संतुष्ट साधु और असंतुष्ट चक्रवर्ती | इन दोनों के सुखदुःख की तुलना की जाये तो साधु अधिक सुख से युक्त मालूम होगा और चक्रवर्ती अधिक दुःख से युक्त । संतोषामृत-पान की इच्छा से स्वाधीन बना हुआ चक्रवर्ती क्षणभर में छह खंड के राज्य को छोड़कर निःसंगता
339