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माया एवं सरलता का स्वरूप
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १५ से १६ अपना पूर्वाभिमान छोड़कर चिरकाल तक उसकी सेवा करता है। इस प्रकार मानसंबंधी दोषों का विचार करके नम्रता का आचरण करने से अनेक गुण पैदा होते हैं। यह जानकर अभिमान का त्याग करके साधुधर्म के विशिष्ट गुण-मार्दव में तन्मय होकर तत्क्षण उसका आश्रय लेना चाहिए ।।१४।।
अब मायाकषाय का स्वरूप बताते हैं।३४१। असूनृतस्य जननी, परशुः शीलशाखिनः । जन्मभूमिरविद्यानां, माया दुर्गतिकारणम् ।।१५।। अर्थ :- माया असत्य की जननी है, वह शील अर्थात् सुंदर स्वभाव रूप वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है,
अविद्या अर्थात् मिथ्यात्व एवं अज्ञान की जन्मभूमि है और दुर्गति का कारण है ।।१५।। भावार्थ :- वास्तव में देखा जाय तो माया के बिना झूठ ठहर नहीं सकता। माया का अर्थ ही है, दूसरों को ठगने का परिणाम। दूसरों को ठगने के लिए जो माया करता है, वह परमार्थ से अपने आपको ही ठगता है ।।१५।। अतः माया के फल का निर्देश करते हैं।३४२। कौटिल्यपटवः पापाः, मायया बकवृत्तयः । भुवनं वञ्चयमाना, वञ्चयन्ते स्वमेव हि ॥१६।। ____अर्थ :- कुटिलता करने में कुशल पापी बगुले के समान दंभी वृत्ति वाले माया से जगत् को ठगते हुए वास्तव
में अपने आप को ही ठगते हैं ।।१६।। व्याख्या :- तृतीय कषाय माया है; उससे जो जगत को ठगता है, वह अपनी आत्मा को ही ठगता है। अपने पापकार्यों को छिपाने की वृत्तिवाला बगुले के समान माया रूपी पापकर्म करता है। जैसे बगुला मछली आदि को धोखा देने के लिए धीरे-धीरे चेष्टा करता है, उसी तरह कपट करने वाला भी जगत् को ठगने के लिए बगुले के सदृश चेष्टा करता है। यहां शंका होती है कि मायावी जगत् को ठगता है और वह अपनी माया को छिपाता फिरता है तो वह संचितमाया का इतना बोझ कैसे उठा लेता है? इसके उत्तर में कहते हैं-ठगने की कुशलता के बिना कोई दूसरे को कदापि नहीं ठग सकता और न अपनी माया को ही छिपा सकता है। जो कुटिलता में पटु होता है, वही दूसरों को ठगने और उसे छिपाये रखने में समर्थ हो सकता है।
यहां इस संबंध में कछ आंतर श्लोकों का भावार्थ प्रस्तत करते हैं-राजा लोग कटनीति. षडयंत्र. जाससी और गुप्त प्रयोगों द्वारा कपट पूर्वक विश्वस्त व्यक्ति का घात करके धन के लोभ से दूसरों को ठगते हैं। ब्राह्मण मस्तक पर तिलक लगाकर, हाथ आदि की विविध मुद्राओं का प्रदर्शन करके, मंत्र जपकर तथा दूसरों की कमजोरी का लाभ उठाकर हृदयशून्य होकर बाह्य दिखावा करके लोगों को ठग लेते हैं। वणिक जन नापतौल के झूठे बांट बनाकर कपट क्रिया करके भोलेभाले लोगों को ठगते हैं। कई लोग सिर पर जटा धारणकर, मस्तक मुंडाकर या लंबी लंबी शिखा-चोटी रखवाकर, भस्म लगाकर, भगवे वस्त्र पहनकर या नंगे रहकर; हृदय में परमात्मा और धर्म के प्रति नास्तिकता और ऊपर से पाखंड दिखाकर भद्र श्रद्रालु यजमानों को ठग लेते हैं। स्नेह रहित वेश्याएँ अपना हावभाव, विलास, मस्तानी चाल दिखाकर अथवा कटाक्ष फेंककर या अन्य कई तरह के नृत्य, गीत आदि विलासों से कामी पुरुषों को क्षणभर में आकर्षित करके ठग लेती है। जूगारी झूठी सौगंधे खाकर, झूठे कौड़ी और पासे बनाकर धनवानों से रुपये ऐंठ लेते हैं; दंपती, मातापिता, सगे भाई, मित्र, स्वजन, सेठ, नौकर तथा अन्य लोग परस्पर एक दूसरे को ठगने में नहीं चूकते। धनलोलुप पुरुष निर्लज्ज होकर खुशामद करने वाले चोर से तो हमेशा सावधान रहता है, किन्तु प्रमादी को ठग लेता है। कारीगर और चांडाल अपने पुरखों से प्रचलित व्यापार-धंधे से अपनी आजीविका चलाते है, मगर छल से शपथ खाकर अच्छे-अच्छे सज्जनों को ठग लेते हैं। क्रूर व्यंतरदेव आदि कुयोनि (नीचजाति) के भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदि मनुष्यों और पशुओं को प्रमादी जानकर प्रायः अनेक प्रकार से हैरान करते हैं। मछली आदि जलचर जंतु प्रपंच पूर्वक अपने ही बच्चों को निगल जा
मछए उन्हें भी कपट पूर्वक जाल आदि बिछाकर पकड लेते हैं। ठगने में चतर शिकारी विभिन्न उपायों से मूर्ख स्थलचर जीवों को अपने जाल में फंसा लेते हैं, बांध लेते हैं और फिर मार डालते हैं। हिंसक बहेलिए थोड़े से मांस खाने के लोभ में बेचारे चिड़िया, तोता, मैना, तीतर, बटेर आदि आकाशचारी पक्षियों को अतिक्रूर बनकर निर्दयता से बांध लेते हैं। इस प्रकार सारे संसार में आत्मवंचक लोग एक दूसरे को ठगने में रत होकर अपने धर्म और
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