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मार्दव एवं माया का स्वरूप और उसके परिणाम
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १४ . उसका भी मद करना उचित नहीं। बलवान भी वृद्धावस्था में मृत्यु के समय अथवा अन्य कर्म के उदय के समय निर्बल होते देखे जाते हैं। इसलिए बलमद करना निरर्थक है। सात धातुओं से बना हुआ यह शरीर भी बढ़ता-घटता रहता है, वृद्धावस्था में रोगों से व्याप्त हो जाता है; अतः कौन ऐसे क्षणभंगुर शरीर के रूप का मद करेगा? सनत्कुमार चक्रवर्ती का रूप कितना सुंदर था? थोड़े ही समय में उसके रूप की सुंदरता नष्ट हो गयी। ऐसा विचार करके कौन ऐसा पुरुष होगा; जो स्वप्न में भी रूप का मद करेगा? श्री ऋषभदेव भगवान् और श्री महावीरस्वामी के तप की पराकाष्ठा सुनकर अपने अत्यंत अल्पतप का कौन अभिमान करेगा? जिस तपस्या से एकसाथ कर्म-समूह टूट सकते है, उसका अभिमान करने से तो उलटे कर्म-समूह बढ़ जाते हैं। दूसरों के द्वारा रचित शास्त्रों का अभ्यास करके अपनी अल्पबुद्धि के प्रयास से ग्रंथ तैयार करके अपने में उसको लेकर सर्वज्ञता का अभिमान करने वाला तो अपने ही अंगों का भक्षण करता है। श्री गणधर भगवान् में द्वादशांगी के निर्माण करने और स्मरण करने की शक्ति थी; उसे जानकर कौन बुद्धिमान पुरुष श्रुत का अभिमान करेगा? कोई नहीं करेगा।
कितने ही आचार्य ऐश्वर्यमद और तपोमद के स्थान पर वल्लभतामद और बुद्धिमद कहते हैं। वे उनके संबंध में इस प्रकार उपदेश देते हैं दरिद्र पुरुष उपकार के भार के नीचे दबकर बुरे काम करके दूसरे मनुष्यों की वल्लभता (प्रियता) प्राप्त करता है; भला, वह उसका मद कैसे कर सकता है? जो दूसरे की कृपा से मिली हुई वल्लभता को पाकर गर्व करता है, वह वल्लभता के चली जाने पर शोकसमुद्र में डूब जाता है। बुद्धि के विविध अंग, उसके बढ़ाने की विधि, उसके विकल्प तथा उसके अनंतपर्यायों की न्यूनाधिकता एवं तरमता देखते हुए षट्स्थानपतित के भेद से अनंतगुनी बुद्धि के धनी द्वारा सूत्र का अर्थ ग्रहण करने-कराने, नवीन रचना करने, अर्थ पर चिंतन एवं उसका अवधारण करने आदि विषयों में प्राचीनकालिक महापुरुष सिंहवत् अनंतविज्ञानातिशययुक्त होते थे; यह जानकर इस काल का अल्पबुद्धि पुरुष अपनी बुद्धि का अहंकार कैसे कर सकता है? ।।१३।।।
इस प्रकार मान का स्वरूप एवं उसके भेदों का प्रतिपादन किया। अब मान के प्रतिपक्षभूत मार्दव (जो मान पर | विजय प्राप्त करने का उपाय है।) का उपदेश देते हैं।३४०। उत्सर्पयन् दोषशाखा, गुणमूलान्यधो नयन् । उन्मूलनीयो मानदुस्तन्मार्दव-सरित्प्लवैः ॥१४॥ अर्थ :- दोष रूपी शाखाओं को विस्तृत करने वाले और गुण रूपी मूल को नीचे ले जाने वाले मान रूपी वृक्ष
को मार्दव-नम्रता रूपी नदी के वेग से जड़ सहित उखाड़ फेंकना चाहिए ।।१४।। व्याख्या :- मान को वृक्ष की उपमा देकर दोनों की यहां तुलना की गयी है। मानी पुरुष के दोष वृक्षशाखा के समान ऊंचाई में फैलते हैं। वे दोष शाखाएँ है और गुण मूल है, जो ऊपर फैलने के बजाय नीचे जाता है। अर्थात् दोषों का समूह बढ़ता जाता है, और गुणों का समूह घटता जाता है। ऐसे मानवृक्ष को कैसे उखाड़ा जाय? इस संबंध में कहते हैं-मार्दव नम्रता रूपी लगातार बहने वाली नदी की तेज धारा (वेग) के द्वारा मानवृक्ष को उखाड़ना चाहिए। ज्योंज्यों मदवृक्ष बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों गुण रूपी मूल छुप जाते हैं और दोष रूपी शाखाएँ बढ़ती जाती है; जिन्हें कुल्हाड़े आदि से उखाड़ना अशक्य है; उसे तो नम्रता-भावना रूपी नदी के तीव्र जल-प्रवाह से ही समूल उखाड़ी जा सकती है। उससे ही उखाड़ना चाहिए।
यहां इसी विषय के आंतरश्लोको का भावार्थ कहते हैं
मार्दव का अर्थ है-मृदुता-कोमलता, उद्धतता का त्याग। उद्धतता मान का स्वाभाविक उपाधि-रहित स्वरूप है। | जाति आदि जिस-जिस विषय में अभिमान पैदा हो, उसका प्रतिकार करने के लिए नम्रता का आश्रय लेना चाहिए। प्रत्येक स्थान पर कोमलता, नम्रता और विनय करना और पूज्य पुरुषों का तो विशेष प्रकार से विनय करना चाहिए। क्योंकि पूज्य पुरुषों की पूजा करने से पाप साफ हो जाते हैं, व्यक्ति पाप से मुक्त हो जाता है। बाहुबली मुनि अभिमान के वश होकर पाप रूपी लताओं से घिरे थे और जब मन में नम्रता का चिंतन किया तो, उसी समय पाप से मुक्त होकर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था। चक्रवर्ती संसार का संबंध छोड़कर वैरी के घर भी भिक्षार्थ जाते हैं। वास्तव में मान छोड़कर मार्दव ग्रहण करना अतिकठिन है। दीक्षा लेकर चक्रवर्ती भूतपूर्व रंक साधु को भी तत्काल वंदन करता है।