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श्रावकधर्म पालक गृहस्थ की भावी सद्गति
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १५३ आदि को निमंत्रण देकर उन्हें भोजन करवाया। फिर उनके सामने अपने परिवार का सारा भार अपने बड़े पुत्र को सौंपा और मित्र - ज्ञाति - स्वजन आदि का सम्मान कर उनकी अनुमति लेकर धर्मकार्य की अभिलाषा से वह पौषधशाला में | गया। वहां कषायजनित कर्मों और शरीर को कृश करता हुआ महात्मा आनंद भगवान् के कथनानुसार आत्मा के समान धर्म का पालन करने लगा। स्वर्ग और मोक्ष में चढ़ने के लिए निःश्रेणी के समान श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में वह | उत्तरोत्तर चढ़ने लगा। तीव्र तपश्चर्या करते हुए उस महासत्व ने शरीर का रक्त और मांस सूखा दिया। चमड़ा लपेटी हुई | लकड़ी के समान उसका शरीर दिखाई देने लगा। एक दिन रात को आनंद - श्रावक धर्म- जागरण करता हुआ व सतत | तपस्या में आनंद मानता हुआ, इस प्रकार विचार करने लगा कि 'जब तक मुझ में खड़े होने की शक्ति है, जब तक मैं दूसरों को बुलाने में समर्थ हूं तथा मेरे धर्माचार्य यहां विचरते हैं, तब तक दोनों प्रकार की मारणांतिक संलेखना | स्वीकार करके चारों आहार का त्यागकर लूं। ऐसा विचारकर आनंद श्रावक ने उसे क्रियान्वित किया। महात्मा लोगों के विचार और व्यवहार में कभी भिन्नता नहीं होती। जीवन और मरण के विषय में निःस्पृह और समभाव के अध्यवसायी | आनंद को अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान प्राप्त हुआ।
इधर विहार करते हुए श्रीवीर परमात्मा फिर द्युतिपलाश उद्यान में पधारें और उनका धर्मोपदेश पूर्ण होने के बाद श्रीगौतम गणधर ने नगर में भिक्षार्थ प्रवेश किया। भिक्षाटन करते हुए वे आनंद श्रावक से विभूषित कोल्लाक सन्निवेश में आहार- पानी लेने पधारें। गौतमस्वामी के आगमन से लोगों को आश्चर्य हुआ । आम रास्ते पर खड़े लोग एकत्रित होकर | गौतम स्वामी से कहने लगे- श्री वीर परमात्मा के पुण्यशाली श्रावक शिष्य आनंद ने अनशनव्रत अंगीकार किया है, | उसे किसी भी प्रकार के सांसारिक सुखों की अभिलाषा नहीं है। उसे सुनकर गौतमस्वामी ने विचार किया कि - चलूं, | उस श्रावक को दर्शन दे दूं। इस विचार से वे उसकी पौषधशाला में पहुंचे। अकस्मात् अचिंतित रत्नवृष्टि के समान उनके दर्शन होने से आनंद श्रावक अत्यंत हर्षित हुआ और वंदन करते हुए उसने कहा कि 'भगवन् ! क्लिष्ट अनशन तप करने से मुझ में खड़े होने की शक्ति नहीं है। अतः आप निकट पधारें; जिससे आपके चरणकमल स्पर्श करूँ।' इस पर | महामुनि गौतम आनंदश्रावक के निकट आकर खड़े रहे, तब चरणों में मस्तक रखकर आनंद ने त्रिकरणशुद्ध वंदन किया। फिर आश्वस्त होकर उनसे पूछा-भगवन् ! गृहस्थ को अवधिज्ञान प्राप्त होता है या नहीं? उसके उत्तर में गौतमस्वामी ने कहा- हां, होता है। तब आनंद ने कहा- भगवन् ! गुरुदेव की कृपा से मुझ गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है। पूर्व, दक्षिण और पश्चिम इन तीनों दिशाओं में सौ-सौ योजन तक और ऊन ऊन समुद्रों का जल, उत्तर दिशा में हिमवान् पर्वत तक मुझे दिखता है। इसी तरह प्रभो! ऊपर सौधर्म देवलोक तक और नीचे रत्नप्रभापृथ्वी के | लोलुयच्चुय पाथड़े तक (नरक का विभाग) तक मुझे दिखायी देता है। यह सुनकर गौतमस्वामी ने कहा - आनंद ! | गृहस्थ को अवधिज्ञान जरूर होता है, परंतु इतने विषयों का ज्ञान नहीं होता। अतः इसका प्रायश्चित्त करो। आनंद ने | कहा- भगवन् ! मुझे इतना अवधिज्ञान है अतः क्या विद्यमान पदार्थ के सत्य को कहने में प्रायश्चित्त आता है? यदि प्रायश्चित्त आता भी हो तो भगवन्! इस विषय में आपको लेना चाहिए; गौतमस्वामी से जब आनंद ने इस प्रकार कहा तो उन्हें भी कुछ-कुछ शंका हुई। और वे सीधे श्रीवीरप्रभु के पास पहुंचे। उन्हें आहार- पानी बताया और आनंद के अवधिज्ञान के विषय में जो आशंका थी, उसे निवेदन कर गौतमस्वामी ने प्रकट रूप में पूछा - प्रभो ! इस विषय में आनंद प्रायश्चित्त का भागी है या में? आलोचना मुझे करनी चाहिए या आनंद को ? प्रभु ने कहा- गौतम ! मिच्छा मि दुक्कडं तुम्हें | देना चाहिए और आनंद से जाकर क्षमा मांगनी चाहिए? प्रभु की आज्ञा मानकर क्षमाभंडार गौतमस्वामी ने आनंदश्रावक | से क्षमायाचना की। इस तरह आनंदश्रावक बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन करके अनशन पूर्वक आयुष्य पूर्ण कर | अरुणवर नामक विमान में देव हुआ। वहां से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह में जन्म लेकर परमपद मोक्ष प्राप्त करेगा। यह है आनंद श्रावक के समाधि मरण का एवं सफल जीवन-यात्रा का वृत्तांत ।।१५२।।
उपर्युक्त कथानुसार श्रावक की भावीगति का दो श्लोकों द्वारा वर्णन करते हैं
।३२४। प्राप्तः स कल्पेष्विन्द्रत्वमन्यद्वा स्थानमुत्तमम् । मोदतेऽनुत्तरप्राज्यपुण्यसम्भारभाक् ततः ||१५३।।
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