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आनंदश्रावक की कथा
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १५२ पालक, पितातुल्य जितशत्रु नामक विख्यात राजा था। उस नगर में अपने दर्शन से दूसरों की आंखों को आनंद देने वाला, धरती पर मानो दूसरा चंद्र आया हो, ऐसा आनंद नाम का गृहपति रहता था। जैसे रोहिणी चंद्र की पत्नी मानी जाती है, वैसे ही रूप लावण्य से मनोहर शिवानंदा नाम की उसकी धर्मपत्नी थी। उसके पास जमीन में निधान रूप में गाड़ी हुई और गृहसामग्री में लगी हुई व्यापार में लगी हुई चार-चार करोड़ स्वर्णमुद्राएँ थीं। तथा गायों के चार बड़े गोकुल थे। उस नगर के वायव्य कोण में कोल्लाक नामक उपनगर में आनंद के बहुत सगे-संबंधी रहते थे। उस समय | भूमंडल पर विचरण करते हुए सिद्धार्थनंदन, श्रीवर्धमानस्वामी उस नगर के द्युतिपलाश नामक उद्यान में पधारें। जितशत्रु | राजा ने प्रभु का आगमन सुना तो वह भी परिवार सहित शीघ्र प्रभु-वंदनार्थ गया। आनंद भी पैदल चलकर अनेक
मनुष्यों को साथ लेकर प्रभु के चरण-कमलों में पहुंचा और उनकी अमृतवर्षिणी धर्मदेशना सुनकर अपने कान पवित्र किये। फिर प्रभु के चरणों में नमस्कार कर महामना आनंद ने प्रभु से बारह व्रत रूप गृहस्थधर्म अंगीकार किया। अपनी |शिवानंदा स्त्री को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों का त्याग किया। निधान, प्रविस्तर और व्यापार में लगी हुई चार-चार करोड़ स्वर्णमुद्राओं को छोड़कर अन्य संपत्ति का त्याग किया। चार गोकुल के उपरांत गोकुल का तथा पांच सौ हल से जितनी | खेती हो, उससे अधिक खेती का त्याग किया। दिग्यात्रा अर्थात् प्रत्येक दिशाओं में व्यापारार्थ जाने के लिए चार सवारी गाड़ियों के अलावा अन्य यानों का त्याग किया। अंग पोंछने के लिए सुगंधित काषाय वस्त्र (तौलिया) के अलावा अन्य वस्त्रों का भी त्याग किया। हरी मुलहठी के दंतौन के सिवाय अन्य दंतौनों का तथा क्षीर आमलक के सिवाय अन्य फलों का त्याग किया। सहस्त्रपाक और शतपाक के अतिरिक्त तेलों की मालिश का त्याग किया, सुगंधित विलेपन-योग्य पदार्थ से अतिरिक्त विलेपन का त्याग किया। स्नान करने के लिए आठ घड़े पानी से अधिक इस्तेमाल करने का त्याग किया। पहनने के लिए एक सूती वस्त्र के जोड़े से अधिक वस्त्र का त्याग किया; चंदन, अगुरु और केसर के लेप के सिवाय अन्य लेपों का त्याग किया। मालतीपुष्प की माला और कमल के सिवाय फूलों का त्याग किया। कर्ण-आभूषण तथा मुद्रिका के अलावा समस्त आभूषणों का त्याग किया। दशांग धूप व अगर के धूप के अलावा अन्य धूपों का भी त्याग किया। घेवर और पूए के अलावा अन्य मिठाइयों का त्याग, काष्ठ से तैयार की हुई पेय (राब) एवं कलमी चावल के अलावा ओदन का त्याग किया। उड़द, मूंग, मटर के अलावा, सूपों (दालों) का त्याग, शरद्ऋतु में तैयार हुए, गाय के घी के अलावा अन्य घी का त्याग, स्वस्तिक, मंडूकी, के सिवाय और भाजी का त्याग, घी-तेल से छोंककर तैयार की हुई खट्टी दाल (कढ़ी) के सिवाय दाल का तथा वर्षा के जल के सिवाय अन्य जल का और पांच सुगंधित तांबूल के अतिरिक्त मुखवास का त्याग किया।
इसके बाद आनंद भगवान् को वंदना करके घर आया। उसने स्वीकृत गृहस्थ-धर्म की विधि शिवानंदा को सहर्ष | सुनायी। उसे सुनकर स्वकल्याणार्थ गृहस्थधर्म स्वीकार करने की अभिलाषिणी शिवानंदा भी रथ में बैठकर उसी समय भगवान् के चरणों में पहुंची और तीन जगत् के गुरु को वंदन कर उसने भी भलीभांति समझकर श्रावकधर्म अंगीकार किया। भगवान् की अमृतमयी वाणी श्रवण कर वह हर्षित हुई और विमानतुल्य तेजस्वी धर्मरथ में बैठकर वह अपने |घर लौटी। उस समय श्रीगौतम स्वामी ने सर्वज्ञ भगवान् से पूछा-यह महात्मा आनंद श्रावक साधुधर्म स्वीकार करेगा या नहीं? त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ भगवान् ने कहा-आनंद दीर्घकाल तक श्रावक के व्रतों का पालन करेगा। उसके बाद आयुष्य पूर्ण कर सौधर्मकल्प नामक प्रथम देवलोक के अरुणप्रभ विमान में चार पल्योपम की स्थिति वाला श्रेष्ठ देव होगा।
इधर आनंद श्रावक को बारह व्रतों का सतत सावधानी के साथ पालन करते हुए चौदह वर्ष बीत गये। शुद्ध स्थितप्रज्ञ आनंद ने एक बार रात के अंतिम प्रहर में विचार किया कि मैं इस नगर में बहुत से लोगों का आधारभूत हूं; उनकी चिंता करते-करते ही कहीं मेरा पतन न हो जाये। यदि ऐसा हुआ तो मेरे द्वारा स्वीकृत सर्वज्ञ-कथित धर्म में| अतिचारादि दोष लग जायेंगे। इत्यादि प्रकार से मन में शुभ भाव-पूर्वक चिंतन करते हुए आनंद श्रावक प्रातःकाल उठा। उसने अपने संकल्पानुसार कोल्लाक सन्निवेश में अतिविशाल पौषधशाला बनवायी। वहां उसने अपने मित्र, संबंधी, बंधु
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