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बाइस परिषहों पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १५२ यह सोचकर मृत्यु (प्राणत्याग) की आकांक्षा से संलेखना करना; अथवा किसी ने अनशन किया हो परंतु शरीर में | बीमारी ज्यादा बढ़ जाय, कोई उत्कृष्ट पीड़ा हो या अनादर (सत्कार-पूजा-प्रशंसा आदि) होने के कारण जल्दी मरने की इच्छा करना मरणाशंसा है। तथा ५. निदान का अर्थ है- स्वयं ने दुष्कर तप या किसी व्रत-नियम का पालन किया हो, उसके बदले में उन तप आदि के फलस्वरूप 'जन्मांतर में मैं चक्रवर्ती, वासुदेव, राजा, महाराजा, सौभाग्यशाली अथवा रूपवान मनुष्य या देव बनूं।' इस प्रकार के निदान (दुसंकल्प) का त्याग करना चाहिए। पुनः वह किस प्रकार से? उसे कहते हैं-समाधि परमस्वस्थता रूपी सुधा से सिंचित रहे अर्थात् समाधिभाव में लीन रहे ।।१५१।। ।३२३। परीषहोपसर्गेभ्यो, निर्भीको जिनभक्तिभाक् । प्रतिपद्येत मरणमानन्दः श्रावको यथा ॥१५२॥ अर्थ :- तथा परिषह और उपसर्ग भी आ जाएं, फिर भी भयभीत न हो तथा जिनेश्वर भगवान् की भक्ति में तन्मय
रहे तथा स्वयं आनंद श्रावक के समान समाधिमरण को प्राप्त करे ॥१५२।। व्याख्या :- कर्म निर्जरा के लिए परिषह (अपने धर्म की सुरक्षा के लिए सहने योग्य) और उपसर्गों को सहन करना चाहिए ।।१५२॥
धर्मपालन करते समय आने वाले परिषहों (कष्टों) से जरा भी घबराना या विचलित नहीं होना चाहिए। परिषह बाईस हैं। वे इस प्रकार से हैं-१. क्षुधापरिषह, २. तृष्णा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंश-मशक, ६. अचेलकत्व, ७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृण-स्पर्श, १८. मल, १९. सत्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान और २२. दर्शन-परिषह। इन २२ परिषहों पर विजय प्राप्त करना संलेखनांव्रती तथा महाव्रती साधक के लिए आवश्यक है।
बाइसपरिषह-१. क्षुधापरिषह - क्षुधा से पीड़ित, शक्तिशाली विवेकी साधु गोचरी की एषणा का उल्लंघन किये | बिना अदीनवृत्ति से (घबराये बिना) केवल अपनी संयमयात्रा के निर्वाह के लिए भिक्षार्थ जाये। संलेखनधारी साधक | भूख लगने पर समभाव से सहन करे। २. तृषा-परिषह - तत्त्वज्ञमुनि प्यासा होने पर मार्ग में पड़ने वाले नदी, तालाब, कुँएँ आदि का सचित्त पानी देखकर उसे पीने की इच्छा न करे, परंतु दीनता छोड़कर अचित्त जल की गवेषणा करे। : संलेखनाधारी भी प्यास लगने पर उसे समभाव से सहे। ३. शीत-परिषह - ठंड से पीड़ित होने पर पास में वस्त्र या कंबल न हो तो भी अकल्पनीय वस्त्रादि ग्रहण नहीं करे, न ठंड मिटाने के लिए आग जलाएँ या आग तापे। ४. उष्णपरिषह - धरती तपी हो, फिर भी गर्मी की निंदा न करे और न ही पंखे या स्नान आदि की अभिलाषा करे। ५. दंशमशकपरिषह - डांस-मच्छर, खटमल आदि जीवों द्वारा डसने या काटने का उपद्रव होने पर भी उन्हें त्रास न देना, उन पर द्वेष न करना, किन्तु माध्यस्थ्यभाव रखना, क्योंकि प्रत्येक जीव आहार-प्रिय होता है। ६. अचेलक-परिषहवस्त्र न हो, अशुभ वस्त्र हो तब 'यह वस्त्र अच्छा है, यह खराब है;' ऐसा विचार न करे। केवल लाभालाभ की विचित्रता का विचार करे। परंतु वस्त्र के अभाव में दुःख न माने। ७. अरंति-परिषह - धर्म रूपी उद्यान में आनंद करते हए साध या साधक विहार करते-बैठते-उठते अथवा संयम-अनष्ठान करते या धर्मपालन अरुचि या उदासीनता न लाये, बल्कि मन को सदा स्वस्थ और मस्ती में रखें। ८. स्त्री-परिषह - दुर्ध्यान कराने वाली, संग रूप, कर्मपंक में मलिन करने वाली, मोक्ष द्वार की अर्गला के समान स्त्री को स्मरण करने मात्र से धर्म का नाश होता है। इसलिए इसे याद ही न करना चाहिए। ९. चर्या-परिषह - गांव, नगर, कस्बे आदि में अनियत रूप में रहने वाला साधु किसी भी स्थान में ममत्व रखे बिना विविध अभिग्रह धारण करते हुए अकेला भी हो, फिर भी नियमानुसार विहार आदि की चर्या करे; विचरण करे। १०. निषद्या-परिषह - स्मशानादिक स्थान में रहना निषद्या-स्थान कहलाता है। उसमें स्त्री, पशु या नपुंसक के निवास से रहित स्थान में अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग सहन करते हुए निर्भयता से रहना। ११. शय्या-परिषह - शुभ अथवा अशुभ शय्या मिलने पर अथवा सुख या दुःख प्राप्त होने पर मन में रागद्वेष नहीं करना चाहिए। इसे सुबह तो छोड़नी ही है। ऐसा विचारकर हर्ष-शोक नहीं करना चाहिए। १२. आक्रोशपरिषह - आक्रोश करने वाले पर क्रोध नहीं करना. अपितु क्षमा रखना, समभाव से सहना। क्योंकि क्षमा रखने या क्षमा देने वाला श्रमण कहलाता है। और आक्रोश करने वाले को उपकारी-बुद्धि से देखना चाहिए। १३. वध-परिषह
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