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आनंदश्रावक की अंतिम धर्मक्रिया
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १५२ मुनि को कोई मारे, पीटे, उस समय यह विचारे कि आत्मा का नाश तो कभी नहीं होता। क्रोध की दुष्टता से कर्मबंध
और क्षमा के द्वारा गुण-उपार्जन होता है; अतः उसे मारने न जाये, अपितु वध-परिषह सहन करे। १४. याचनापरिषह-भिक्षाजीवी साधु दूसरों के द्वारा दिये हुए पदार्थ से अपनी जीविका चलाते हैं। अतः याचना करने में साधु-| साध्वी न तो शर्म रखे और न दुःख ही माने। याचना से घबराकर गृहस्थ-जीवन स्वीकार ने की इच्छा न करे। १५. अलाभ-परिषह- अपने लिये या दूसरे के लिए दूसरों से आहारादि न मिलने पर दुःख और मिलने पर लाभ का अभिमान न करे। किसी ने आहारादि नहीं दिया तो उस व्यक्ति या गांव की निंदा न करे। १६. रोग-परिषह - रोग होने पर घबराए नहीं। उसकी चिकित्सा करने की अभिलाषा न रखे, बल्कि अदीन मन से शरीर और आत्मा की भिन्नता समझकर उस रोग को सहन करे। १७. तृण-स्पर्शपरिषह - तिनके, घास आदि का बिछौना बिछाया हो, कपड़ा बहुत बारीक हो; इस कारण उसकी नोकें चुभती हो, दर्द होता हो तो सहन करे; परंतु कोमल गुदगुदी शय्या की इच्छा न करे। १८. मल-परिषह - धूप या पसीने से सारे शरीर पर मैल जम गया हो, बदबू आ रही हो, उससे मुनि उद्विग्न न हो। पानी में डुबकी लगाकर या तैरकर स्नान करने की इच्छा न रखे और न मैल घिसकर दूर करने की इच्छा रखे। १९. सत्कार-परिषह - किसी की ओर से विनय, पूजा, दान, सम्मान, प्रतिष्ठा या वाहवाह की अपेक्षा साधु को नहीं रखनी चाहिए। सत्कार न मिले तो उससे मन में दीनता, हीनता या क्षोभ न लाये। यदि सत्कार मिले तो हर्ष या अभिमान न करे। २०. प्रज्ञा-परिषह - दूसरे को अधिक बुद्धिशाली देखकर और अपनी अल्पबुद्धि जानकर मन में खेद न करे और स्वयं में अधिक बुद्धि हो तो उसका अभिमान न करे; न ही दूसरों को ज्ञान देने में खिन्न हो; २१. अज्ञानपरिषह - ज्ञान और चारित्र युक्त होने पर भी मैं छमस्थ हूं, ऐसा अज्ञान सहन करे और मन में विचार करे कि ज्ञान क्रमानुसारं क्षयोपशम से ही प्राप्त होता है। २२. दर्शन-परिषह - सम्यक्त्व प्रास होने पर भी वस्तुतत्त्व को यथार्थ रूप से न समझने पर दुःख न करे। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने का अभिमान न करे और माने कि जिनेश्वर भगवान्-कथित जीव, अजाव, धर्म, अधर्म, पुनर्जन्म आदि परोक्ष होने पर भी सत्य है।
इस तरह कर्मों की निर्जरा (अंशतः क्षय) के लिए निर्भय, इंद्रिय-विजेता और मन, वचन, काया पर नियंत्रण करने वाले मुनि शारीरिक, मानसिक या प्राकृतिक परिषहों को समभाव से सहन करें। ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अंतराय.कर्मों के उदय से परीषह होते हैं। वेदनीय कर्म से १. क्षुधा, २. तृषा, ३. शीत, ४. उष्ण ५. दंश, ६. चर्या, ७. वध, ८. मल, ९. शय्या, १०. रोग, ११. तृणस्पर्श जिन-केवली को भी हो सकते हैं। उपसर्ग आने पर भी वे निर्भय रहते हैं। उप अर्थात् समीप में, कष्टों का जिससे सर्जन हो, उसे उपसर्ग कहते हैं अथवा जिससे परेशान किया जाय उसे उपसर्ग कहते हैं। वह चार प्रकार का है। १. देवकृत, २. द्वेष से, ३. विमर्श-परीक्षा करने के लिए और इन चारों के प्रत्येक के चार-चार भेद है-१. हास्य से, २. मनुष्यकृत, ३. तिथंचकृत और ४. स्वतःकृत। इन सबके इकट्ठे होने | से मिश्र रूप से। यह (चौथे प्रकार का) उपसर्ग देवता द्वारा होता है। मनुष्यसंबंधी उपसर्ग, हास्य, द्वेष, विमर्श और दःशीलसंग से होते हैं। तियंच-विषयक उपसर्ग भय, क्रोध, आहार अथवा परिवार के रक्षण के लिए होता है। वह इन कारणों से प्रेरित होकर मारता है, गिराता है या रोकता है। शरीर में वेदना करे अथवा वात-पित्त, कफ और सन्निपात होने से भी उपसर्ग होता है। इस तरह परीषहों और उपसों को समभाव से सहन करने वाला आराधक जिनेश्वरभगवान् के प्रति भक्तिमान होता है। कहा है कि-संसार-समुद्र से पारंगत श्रीजिनेश्वर देवों ने भी अंतिम संलेखना आराधना (समाधिमरण-साधना) का अनुष्ठान किया है; ऐसा जानकर सभी को आदर-भक्ति पूर्वक उसकी आराधना करनी चाहिए। कहा भी है-प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ने निर्वाण के रूप में शरीर की अंतक्रिया छह उपवास के अनशन रूप अंतक्रिया स्वीकार की थी। इस प्रकार आराधना करता हआ आनंदश्रावक की भांति समाधिमरण स्वीकार करे। . आनंदश्रावक की संप्रदायपरंपरागम्य कथा इस प्रकार हैआनंदश्रावक की अंतिम धर्मक्रिया :
उन दिनों वाणिज्यक अन्य नगरों से बढ़-चढ़कर ऋद्धि-समृद्धियुक्त प्रसिद्ध नगर था। वहां प्रजा का विधि पूर्वक
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