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संलेखना, परिषह स्वरुप
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १५० से १५२ कहलाती है। ऐसी किसी एक कल्याणकभूमि में संलेखनाधारक पहुंच जाये। तीर्थंकरों के जन्मादिस्थल कहां-कहां है। इसे बताते हैं-ऋषभदेवादि २४ तीर्थंकरों की जन्म-कल्याणक भूमियां क्रमशः इस प्रकार समझना–१. इक्ष्वाकुभूमि, | २. अयोध्या, ३. श्रावस्ती, ४. विनीता, ५. कौशलपुर, ६. कौशांबी, ७. वाराणसी, ८. चंद्रानना (चंद्रपुरी), ९. काकंदी, १०. भदिलपुर, ११. सिंहपुर, १२. चंपापुरी, १३. कंपिला, १४. अयोध्या, १५. रत्नपुर, १६-१७-१८. गजपुर-हस्तिनापुर, १९. मिथिला, २०. राजगृह, २१. मिथिला, २२. शोरिपुर, २३. वाराणसी, २४. कुंडपुर (आ. नि. ३८२-३८४)। ____ उनकी दीक्षा-कल्याणक-भूमियाँ इस प्रकार है-श्री भगवान् ऋषभदेव की दीक्षा विनीता नगरी में, भगवान अरिष्टनेमि की द्वारावती-द्वारिका में और शेष बाईस तीर्थंकरों ने अपनी-अपनी जन्मभूमि में ही दीक्षा ग्रहण की थी। श्री ऋषभदेव भगवान् ने सिद्धार्थवन में, वासुपूज्य भगवान ने बिहारगृह में, धर्मनाथ भगवान् ने वप्रगा में, मुनिसुव्रतस्वामी ने नील गुफा में, पार्श्वनाथ भगवान् ने आश्रमपद में, महावीर प्रभु ने ज्ञातृखंड में और शेष तीर्थंकरों ने सहसाम्रवन उद्यान में दीक्षा-ग्रहण की थी। (आ. नि. २२९ से २३१) | केवलज्ञानकल्याणकभूमियाँ-श्री ऋषभदेव भगवान को पुरिमताल में, श्री महावीर भगवान् को ऋजुबालुका नदी के तट पर और शेष तीर्थंकरों को, उन्होंने जिस उद्यान में दीक्षा ली थी, उसी स्थान के पास केवलज्ञान हुआ था। (आ. नि. २५४)
निर्वाणकल्याणकभूमियां-श्री ऋषभदेव भगवान् अष्टापद पर्वत पर, वासुपूज्य भगवंत चंपापुरी में नेमिनाथ | | भगवंत श्रीरैवतगिरि पर और भगवान् महावीर पावापुरी में शेष बीस तीर्थकर सम्मेदशिखर पर निर्वाण प्राप्त हुए। (आ. नि. ३०७) इन कल्याणक-भूमियों में से किसी एक स्थल पर मरण रूप अंतिमक्रिया स्वीकार करे। यदि जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण का कल्याणक-स्थान नहीं मिले या निकटवर्ती न हो या मृत्यु के समय पहुंचने की स्थिति न हो तो, घर में, साधुओं के स्थान में-उपाश्रय में, जंगल में अथवा शजय आदि सिद्धक्षेत्र में जाकर भूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके यानी जीवजंतु से रहित भूमि देखकर तथा कल्याणक-भूमि आदि में भी जीव जंतुरहित जगह का प्रमार्जन-प्रतिलेखन करके शांत एकांत स्थान में संलेखना करे ।।१४९।। ।३२१। त्यक्त्वा चतुर्विधाहारं, नमस्कार-परायणः । आराधनां विधायोच्चैश्चतुःशरणमाश्रितः ॥१५०।। अर्थ :- सर्व प्रथम अशन-पान-खादिम-स्वादिम रूप चार प्रकार के आहार का त्यागकर परमेष्ठि-नमस्कार
महामंत्र का स्मरण करने में तत्पर हो जाय। तदनंतर निरतिचार रूप से ज्ञानादि की आराधना करे और अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म रूपी चार शरणों का आश्रय स्वीकार करे। अथवा अपनी आत्मा को उक्त चारों श्रद्धेय तत्त्वों को समर्पित करते हुए उच्चस्वर से बोले-अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपन्नतं धम्मं सरणं पवज्जामि अर्थात् मैं अरिहंत भगवान् का शरण स्वीकार करता हूं, सिद्ध परमात्मा का शरण स्वीकार करता हूं, साधु भगवंतों का शरण स्वीकार
करता हूं और वीतराग केवलज्ञानी तीर्थंकरों द्वारा कथित धर्म का शरण स्वीकार करता हूं ।।१५०।। ||३२२। इहलोके परलोके, जीविते मरणे तथा । त्यक्त्वाऽऽशंसां निदानं च, समाधिसुधयोक्षितः ॥१५१।। अर्थ :- १. इहलौकिक आकांक्षा, २. पारलौकिक आकांक्षा, ३. जीविताकांक्षा, ४. मरणाकांक्षा और ५.
कामभोगाकांक्षा से प्रेरित होकर निदान करना, संलेखना के इन ५ अतिचारों का त्यागकर
समाधिसुधासिक्त हो जाय ।।१५१।। व्याख्या :- पांच प्रकार के अतिचार-सहित यावज्जीव अनशन का स्वीकार करना चाहिए। वे पांच अतिचार ये हैं-१. अनशन करने के बाद इस लोक में मोह एवं रूप, धन, पूजा, कीर्ति आदि की आकांक्षा रखना, २. संलेखना (अनशन) करके परलोक में देवलोक आदि की ऋद्धि-समृद्धि, देवांगना आदि को पाने की इच्छा रखना, ३. अधिक समय तक जीवित रहने की इच्छा करना। अपनी पूजा, प्रशंसा अधिक होते देखकर अथवा बहुत से दर्शनार्थी लोगों को अपने दर्शनार्थ आते-जाते देखकर. सभी लोगों से प्रशंसा सुनकर अनशन-परायण साधक यों सोचे कि ज्यादा दिन जीऊँ तो अच्छा रहे!, ४. चारों आहार का त्याग होने पर अमुक स्वर्गीय साधक की तरह का ठाठबाठ या आडंबर भी होगा,
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