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श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १४६ से १४७ कहा भी है-मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः अर्थात् – वही मुनि उत्तम है, जो मोक्ष अथवा भव (संसार) के प्रति सर्वत्र निःस्पृह (निष्कांक्ष) रहता है। इस प्रकार श्रावक के मनोरथ क्रमशः उत्तरोत्तर बढ़कर होते जाते हैं। इस प्रकार प्रथम श्लोक में जिनधर्म के प्रति अनुराग का मनोरथ, दूसरे श्लोक में साधु-धर्म स्वीकार करने का मनोरथ, तीसरे श्लोक में साधुधर्म की चर्या के साथ उत्कृष्ट चारित्र की प्राप्ति का मनोरथ, चौथे श्लोक में कायोत्सर्ग आदि निष्कंपभाव की प्राप्ति का मनोरथ, पांचवें श्लोक में सर्वप्राणिविश्वसनीय बनने का मनोरथ और छटे में परम-सामायिक तक पहुंचने का मनोरथ बताया है ।।१४५।। __अब उपसंहार करते हुए कहते हैं।३१७। अधिरोढुं गुणश्रेणिं, निश्रेणिं मुक्तिवेश्मनः । परानन्दलताकन्दान्, कुर्यादिति मनोरथान् ॥१४६।। अर्थ :- मोक्ष रूपी महल में प्रवेश के हेतु गुण (गुणस्थान) -श्रेणी रूपी निःश्रेणी पर बढ़ने के लिए उत्कृष्ट आनंद
रूपी लताकंद के समान उपर्युक्त मनोरथ करे ।।१४६।। | भावार्थ :- जैसे कंदों से लता उत्पन्न होती है, वैसे ही इन मनोरथों से परमसामायिक रूप परमानंद प्रकट होता है। इसलिए इन सातों श्लोकों के अनुसार मनोरथों का चिंतन करना चाहिए ।।१४६।। . अब उपसंहार करते हैं।३१८। इत्यहोरात्रिकी चर्यामप्रमत्तः समाचरन् । यथावदुक्तवृत्तस्थो, गृहस्थोऽपि विशुध्यति ॥१४७।। अर्थ :- इस प्रकार पूरे एक दिन और रात की श्रावकचर्या का अप्रमत्तभाव से पालन करता हुआ भी जो श्रावक,
श्रावक की शास्त्रोक्त ग्यारह प्रतिमा रूप सव्रत की सविधि आराधना करता है, वह गृहस्थ (साधु न)
होने पर भी पापों का क्षय करके विशुद्ध हो जाता है ।।१४७।। वे प्रतिमा कौन-सी हैं; जिसकी साधना करने पर गृहस्थ श्रावक भी विशुद्ध हो जाता है? इसे कहते हैंश्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ :
प्रतिमा का अर्थ है-विशिष्ट साधना की प्रतिज्ञा, जिसमें श्रावक संकल्प पूर्वक अपने स्वीकृत यम-नियमों का दृढ़ता से पालन करता है। ये प्रतिमाएँ श्रावक के लिए ग्यारह है।
१. दर्शन-प्रतिमा - शंकादि दोषरहित, प्रशमादि लक्षणों से युक्त, स्थैर्यादि भूषणों से भूषित, मोक्षमार्ग के महल की नींव के समान सम्यग्दर्शन का; भय, लोभ, लज्जादि, विघ्नों से रहित निरतिचार विशुद्ध रूप से लगातार एक मास तक पालन करना। २. व्रत-प्रतिमा - पूर्वप्रतिमा के पालन के सहित बारह व्रतों का दो मास तक लगातार निरतिचार एवं अविराधित रूप से पालन करना। ३. सामायिक-प्रतिमा - पूर्वप्रतिमाओं की साधना सहित दोनों समय अप्रमत्त रूप से ३२ दोषों से रहित शुद्ध सामायिक लगातार तीन महीने तक करना। ४. पौषध-प्रतिमा-पूर्वप्रतिमाओं के अनुष्ठान सहित निरतिचार रूप से ४ महीने तक प्रत्येक चतुष्पर्वी पर पौषध का पालन करना। ५. कायोत्सर्ग-प्रतिमा - पूर्वोक्त चार प्रतिमाओं का पालन करते हुए पांच महीने तक प्रत्येक चतुष्पर्वी में घर के अंदर, घर के द्वार पर अथवा चौक में परिषह उपसर्ग में सारी रातभर चलायमान हुए बिना काया के व्युत्सर्ग रूप में कायोत्सर्ग करना। इस प्रकार उत्तर-उत्तर की प्रतिमा में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं का अनुष्ठान निरतिचार पालन करना और प्रतिमा के अनुसार कालमर्यादा उतने ही महीने समझना। ६. ब्रह्मचर्य-प्रतिमा - पूर्व प्रतिमाओं के अनुष्ठान सहित छह महीने तक त्रिकरण-योग से निरतिचार ब्रह्मचर्य का पालन करना। ७. सचित्तवर्जन-प्रतिमा - सात महीने तक सचित्तपदार्थसेवन का त्याग करना। ८. आरंभवर्जनप्रतिमा - आठ महीने तक स्वयं आरंभ करने का त्याग करना। ९. प्रेष्य-वर्जनप्रतिमा - नौ महीने तक दूसरे से भी आरंभ कराने का त्याग करना। १०. उदिष्टवर्जनप्रतिमा - दस महीने तक अपने लिये तैयार किया हुआ आहार भी खाने का त्याग करना। ११. श्रमणभूत प्रतिमा - ग्यारह महीने तक स्वजन आदि का संग छोड़कर रजोहरण, पात्र आदि साधुवेश लेकर साधु की तरह चर्या करे। बालों का लोच करे या खुरमुंडन करे। अपने गोकुल, उपाश्रय आदि स्वतंत्र स्थान में रहकर भिक्षाचरी करते हुए साधना करे। भिक्षा के लिए घरों में जाकर प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रमणोपासकाय भिक्षां देहि अर्थात प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो; इस प्रकार बोलकर आहार ग्रहण करे। आहारदाता को
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