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संलेखना : लक्षण, स्थान, विधि और अतिचार
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १४८ से १४९ धर्मलाभ-शब्द का उच्चारण किये बिना सुसाधु के सदृश सुंदर आचारों का पालन करे। इन्हीं ११ प्रतिमाओं का लक्षण | संक्षेप में इस प्रकार बताया गया है- दर्शनप्रतिमा - वह है जिसमें सम्यक्त्वधारी आत्मा का चित्त मिथ्यात्व का क्षयोपशम होने से शास्त्रविशुद्ध व दुराग्रह रूपी कलंक से रहित होता है। (पंचा. १०/४) निरतिचार अणुव्रत आदि बारह व्रतों का पालन करना, दूसरी व्रत-प्रतिमा है। सामायिक का शुद्ध रूप से पालन करना, तीसरी सामायिक-प्रतिमा है। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या ये चारों तिथियां मिलकर चतुष्पर्वी कहलाती है। इन पर्वो के दिन सम्यग् रूप से पौषध करना, चौथी पौषध-प्रतिमा है। पूर्वकथित समस्त अनुष्ठानों से युक्त होकर चारों पर्वदिनों में रात्रि को घर के अंदर या घर के बाहर द्वार पर अथवा चौक में परिषह-उपसर्ग आने पर भी निश्चेष्ट कायोत्सर्ग धारण करके रहना, पांचवी कायोत्सर्ग-प्रतिमा है। ब्रह्मचर्य-प्रतिमा में ब्रह्मचर्य का दृढ़तापूर्वक पालन करना होता है। सातवीं सचित्तवर्जन-प्रतिमा में अचित्त आहार का ही उपयोग करना होता है। आठवीं आरंभवर्जनप्रतिमा में सावद्यारंभ का त्याग करना। नौवीं प्रेष्यवर्जनप्रतिमा में दूसरों से भी आरंभ नहीं कराना; दसवीं उद्दिष्टवर्जन प्रतिमा में अपने लिए बनाये हुए आहार का भी त्याग करना, ग्यारहवी श्रमणभूत-प्रतिमा में निःसंग बनकर साधुवेश एवं काष्ठपात्र, रजोहरण वगैरह लेकर साधुवत् चर्या करना। सिर के बालों का लोच या मुंडन करना तथा अन्य क्रियाएं भी सुसाधु के समान करना। तथा पूर्वोक्त श्रमणगुणों के प्रति आदर-शील बने ।।१४७।।
__ अब पांच श्लोकों द्वारा श्रावक के लिए संलेखना की विशेषविधि कहते हैं।३१९। सोऽथावश्यकयोगानां, भने मृत्योरथागमे । कृत्वा संलेखनामादौ, प्रतिपद्य च संयमम् ॥१४८।। अर्थ :-श्रावक जब यह देखे कि आवश्यक संयम-प्रवृत्तियों (धार्मिक क्रियाओं) के करने में शरीर अब अशक्त
व असमर्थ हो गया है अथवा मृत्यु का समय सन्निकट आ गया है तो सर्वप्रथम संयम अंगीकार करके
संलेखना करे ।।१४८।। व्याख्या :- संलेखना का अर्थ है-शरीर और कषायों को पतले करने के लिए आहार और क्रोधादि का त्याग करना। इसमें पहले शरीर-संलेखना करनी होती है यानी क्रमशः भोजन का त्याग करके शरीर को कृश करना, शरीर की संलेखना न करे तो अनायास ही सब धातुओं का क्षोभ हो जाने से, अंतिम समय में शरीरधारी जीव को आर्त्तध्यान होगा। (पंचवस्तु १५०७) और दूसरी कषाय-संलेखना है, इसका कारण यह समझना कि (व्यवहार भाष्य १०/४६३) इसमें शरीर कृश होने के साथ साथ क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मत्सर, द्वेष, काम आदि कषाय भी कृश होने चाहिए। नहीं तो, उस संलेखनाधारी साधु की तरह होगा, जिसे उसके गुरु ने कहा था-मैं तूंने तपश्चर्या कर शरीर कृश किया उसकी प्रशंसा नहीं करता कि तेरी यह अंगुली किस तरह टूट गयी? उस पर विचारकर। इसलिए भावसंलेखनाकर। अनशन (संथारा) करने की उतावल न कर। इत्यादि विस्तार से बताया गया है। संलेखनाधारक श्रावक यथोचित्त रूप से संयम भी अंगीकार करे। उसकी समाचारी इस प्रकार समझनी चाहिए-श्रावक समस्त-श्रावकधर्मउद्यापन को ही जानता हो तो अंत में संयम स्वीकार करे। ऐसे श्रावक को अंत में संयमधर्म में भी शेष रही धर्मस्वरूपसंलेखना अंगीकार करनी चाहिए। इसी दृष्टि से कहा है कि-संलेहणा उ अंते न निओआ जेण पव्वअइ कोई। जो अंतिम समय में भी संयम अंगीकार करता है, वह संयम लेने के पश्चात् समय में संलेखना करके समाधिपूर्वक प्रसन्नता से मृत्यु का स्वीकार करे और संलेखना के बाद जो संयम अंगीकार नहीं करता, वह आनंद श्रावक की भांति समाधिमरण प्राप्त करे ।।१४८।।
आनंद श्रावक की कथा का प्रसंग आगे आयेगा। ।३२०। जन्म-दीक्षा-ज्ञान-मोक्ष-स्थानेषु श्रीमदर्हताम् । तदभावे गृहेऽरण्ये, स्थण्डिले जन्तुवर्जिते।।१४९॥ अर्थ :- संलेखना करने के लिए अरिहंत-भगवंतों के जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान अथवा निर्वाण-कल्याणक के
पवित्र तीर्थस्थलों पर पहुंच जाये। यदि कल्याणकभूमि निकट में न हो तो, किसी एकांतगृह (मकान),
घर, वन या जीवजंतु से रहित एकांत, शांत, भूमि में संलेखना करे ।।१४९।। व्याख्या :- जहां श्री अहंत तीर्थंकर-प्रभुओं के जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण हुए हैं, वे कल्याणकभूमियाँ
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