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श्रावक के मनोरथ
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १४२ से १४५ जीर्णशीर्ण वस्त्रधारी होकर मलिन-शरीर की परवाह न करते हुए माधुकरी (भिक्षावृत्ति) का आश्रय लेकर
मुनिचर्या को ग्रहण करूंगा? ॥१४१।। व्याख्या :- माधुकरी वृत्ति का तात्पर्य यह है कि जैसे भौंरा दूसरों के द्वारा बोये हुए पौधों के फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर पान करता है, बल्कि फूलों को तनिक भी पीड़ा नहीं पहुंचाते हुए वह अपनी आत्मा को तृप्त कर लेता है; वैसे ही भिक्षु भी गृहस्थों के द्वारा अपने लिये तैयार किये हुए आहार में से थोड़ा-थोड़ा आहार किसी को पीड़ा पहुँचाए बिना इस प्रकार की दानैषणा और भक्तैषणा पूर्वक ग्रहण करके अपनी तृप्ति कर लेते हैं। इस जगत् में बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह से मुक्त हो, उसे श्रमण कहते हैं। जिस तरह भौंरा स्वाभाविक रूप से तैयार हुए पुष्पों से पराग लेता है, उसी तरह साधु भी स्वतः स्वाभाविक रूप से निष्पन्न हुए आहार से शरीर और संयमयात्रा चलाने के लिए थोड़ा-सा आहार लेता है। भौरे की उपमा देकर बताया है कि मुनि द्वारा गृहीत भिक्षा से दूसरे जीवों को जरा भी आघात न पहुंचे। इसी का नाम माधुकरीवृत्ति है ।।१४१।।
निष्कर्ष यह है कि श्रावक ऐसा मनोरथ करे कि कब मैं माधुकरीवृत्ति से जीकर मूलगुण और उत्तरगुण रूपी मुनिचर्या का सेवन करूंगा? तथा।३१३। त्यजन् दुःशीलसंसर्ग, गुरुपादरजः स्पृशन् । कदाऽहं योगमभ्यस्यन्, प्रभवेयं भवच्छिदे! ॥१४२।। अर्थ :- व्यभिचारियों, भांडों, भवैयों, वेश्याओं आदि लौकिक दुःशीलाचारियों तथा पासत्था, ओसन्न, कुशील,
संसक्त, यथाच्छन्दक (स्वच्छंदाचारी); इन लोकोत्तर दुःशीलाचारियों की संगति करना दुःशीलसंसर्ग कहलाता है। उनका त्यागकर गुरुमहाराज के चरणरज का स्पर्श करता हुआ ज्ञानदर्शनचारित्र रूपी तीनों योगों का बार-बार अभ्यास करके भव-जन्म-मरण के चक्र को समाप्त करने में कब समर्थ
बनूँगा?||१४२।। ||३१४। महानिशायां प्रकृते, कायोत्सर्गे पुराद् बहिः। स्तम्भवत् स्कन्धकर्षणं, वृषाः कुर्युःकदा मयि?।।१४३।। अर्थ :- कब मैं महाघोर रात्रि के समय नगर के बाहर प्रकृति के रम्यप्रदेश में कायोत्सर्ग में लीन बनूंगा और कब
बैल मुझे खंभा समझकर अपना कंधा घिसेंगे? ।।१४३।। भावार्थ :- प्रतिमाधारण करने वाला श्रावक नगर के बाहर एकाग्रता से कायोत्सर्ग करे, तब बैल उसके शरीर को खंभे की भ्रांति से अपना कंधा या गर्दन घिसें; यह बात साधु होने की अभिलाषा की अपेक्षा से समझना चाहिए। जिनकल्पी साधु तो हमेशा कायोत्सर्ग (ध्यान) में लीन रहते हैं। प्रतिमाधारी श्रावक सोचे कि कब मुझे ऐसी तल्लीनता प्राप्त होगी? ।।१४३।। इसी प्रकार।३१५। वने पद्मासनासीनं क्रोडस्थित-मृगार्भकम् । कदाऽऽघ्रास्यन्ति वक्त्रे मां, जरन्तो मृगयूथपाः।।१४४|| अर्थ :- वन में मैं पद्मासन लगाकर बैठा होऊ; उस समय हिरन के बच्चे विश्वास पूर्वक मेरी गोद में आकर बैठ
जाये और क्रीड़ा करे। इस प्रकार मेरे शरीर की परवाह किये बिना मृगों की टोली के बूढ़े मुखिया कब
विश्वास-पूर्वक मेरे मुंह को सूंघेगे? ।।१४४।।। भावार्थ :- यहां 'वृद्धमृग' कहने का अभिप्राय यह है कि वे मनुष्य पर सहसा विश्वास नहीं करते। परंतु परमसमाधि की निश्चलता देखकर वे वृद्धमृग भी ऐसे विश्वासी बन जायें कि निर्भयता से मुख चाटे अथवा सूंघे ।।१४४।।
तथा।३१६। शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे, स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि । मोक्षे भवे भविष्यामि, निर्विशेषमतिः कदा? ॥१४५।। अर्थ :- कब मैं शत्रु और मित्र पर तृण और स्त्री-समूह पर; स्वर्ण और पाषाण पर, मणि और मिट्टी पर तथा
मोक्ष और संसार पर समबुद्धि रख सकूँगा? ||१४५।। व्याख्या :- शत्रुमित्रादि से लेकर मणि-मिट्टी तक पर समान-बुद्धि रखने वाले मिल सकते हैं किन्तु परम वैराग्यसंपन्न आत्मा तो वह है, जिसे कर्म-वियोग रूप मोक्ष और कर्मसंबंध रूप संसार में भी कोई अंतर नहीं दिखता।
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