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देव द्वारा कठोर परीक्षा में उत्तीर्ण कामदेव श्रावक
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३८ | पति के व्रत ग्रहण की बात सुनी तो उसने भी तीर्थंकर महावीर के पास जाकर श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये। | इसके बाद कुटुंब का भार बड़े पुत्र को सौंपकर स्वयं कामदेव पौषधशाला में अप्रमत्तभाव से व्रतों का पालन करने लगा। | एक दिन कामदेव काउस्सग्ग (ध्यान) में लीन था। तभी रात के समय उसे विचलित करने के लिए कोई मिथ्यादृष्टि देव | विकराल पिशाच का रूप धारण करके वहां आया। उसके सिर के बाल पीले और क्यारी में पके हुए धान के समान प्रतीत | होते थे। उसका कपाल खप्पर के समान, भौंहे नेवले की पूंछ-सी और कान सूप - सरीखे आकार के थे। इसके नाक दोनों ओठ ऊंट के-से मालूम होते थे और दांत एकदम हल पूंछ सरीखी थी। उसकी दो आंखें तपी हुई पीली पतीली की
के दोनों नथूने ऐसे लगते थे मानो जुड़ा हुआ चूल्हा हो। | जैसे थे। उसकी जीभ सांप की - सी और मूंछ घोड़े की | नांई (तरह) चमक रही थी । उसके होठ का निचला भाग शेर का - सा था। उसकी ठुड्डी हल के मुंह के समान थी । गर्दन
| ऊंट के समान लंबी और छाती नगर के दरवाजे सरीखी चौड़ी थी । पाताल सरीखा उसका गहरा पेट था और कुएँ के | समान नाभि थी । उसका पुरुषचिह्न अजगर के समान था। उसके दोनों अंडकोष चमड़े की कुप्पी के समान थे । ताड़वृक्ष की तरह लंबी लंबी उसकी दो जांघें थीं, पर्वत की शिला के समान उसके दो पैर थे। अचानक बिजली के कड़ाके कीसी भयंकर कर्कश उसकी आवाज थी। वह कानों में आभूषण के बदले नेवला डाले हुए था; उसके सिर पर चूहे की | मालाएँ डाली हुई थी और गले में कछुए की मालाएँ पड़ी थी। बाजूबंद के स्थान पर वह सर्प धारण किये हुए था । उसने सहसा क्रुद्ध होकर म्यान से तलवार निकाली और चाबुक सरीखी भयंकर तर्जनी अंगुली उठाकर गर्जता हुआ कामदेव | से इस प्रकार कहने लगा- अरे धूर्त! अनचाही वस्तु के अभिलाषी ! यह तूंने क्या ढोंग कर रखा है? बेचारा तेरे जैसा | दंभी आदमी स्वर्ग या मोक्ष चाहता है? छोड़ दे, इस कार्य को । वरना, पेड़ से जैसे फल गिरते हैं; वैसे ही इस तीखी | तलवार से तेरे मस्तक को काटकर जमीन पर गिरा दूंगा। इस प्रकार से पिशाच की भयंकर अट्टहास पूर्ण धमकी भरी | गर्जना सुनकर भी कामदेव अपनी समाधि से जरा भी चलायमान नहीं हुआ। क्या अष्टापद कभी भैंसे की आवाज से क्षुब्ध हुआ है? जब कामदेव श्रावक अपने शुभध्यान से लेशमात्र भी चलायमान न हुआ, तो अधमदेव ने दो-तीन बार | उन्हीं बातों को दोहराया। बार-बार धमकियाँ दी, इस पर भी जब वह विचलित न हुआ तो उसने दूसरा दांव फेंका, | मतवाले हाथी का रूप बनाकर। सच है, दुष्टजन अपनी शक्ति को तोले बिना ही अधर्म कार्य करने से बाज नहीं | आते। उसने ऐसा विशाल और विकराल हाथी का शरीर धारण किया जो काले-कजरारे सजल मेघ के समान अत्यंत | ऊंचा था; मानो चारों ओर से सिमटकर एक ही जगह मिथ्यात्व का ढेर लग गया हो। उसके भयंकर लंबे-लंबे दो दंतशूल यमराज के भुजदंड के समान लगते थे। कालपाश की-सी अपनी सूंड ऊंची करके उसने कामदेव से कहा| अरे मायावी ! छोड़ दे, इस मायाजाल को और आ जा मेरी शरण में! मेरी आज्ञा में सुखपूर्वक रह । किसी पाखंडी गुरु ने तुझे बहकाकर इस मोहदशा में डाला है। अगर तूं अब भी इस धर्म के ढोंग को नहीं छोड़ेगा, तो देख ले, इसी सूंड रूपी डंड़े से उठाकर आकाश में तुझे बहुत ऊंचा उछाल फेंकूंगा और जब तूं वापिस आकाश से नीचे गिरने लगेगा, तब मैं तुझे इस दंतशूल पर ऐसे झेलूंगा, जिससे तेरा शरीर दंतशूल से आरपार विंध जायेगा। फिर लकड़ की तरह तुझे | चीर डालूंगा; कुम्हार जैसे मिट्टी को रौंदता है, वैसे ही अपने पैरों से तेरे शरीर रौंद डालूंगा; जिससे तेरी करुणमृत्यु | हो जायगी। इतने पर भी न मरा तो तिल के समान कोल्हू में पीसकर क्षणभर में तेरे शरीर का एकपिंड बना दूंगा । उन्मत्त | बने हुए देव ने इस तरह भयंकर से भयंकर वचन कहे, मगर ध्यान में मग्न कामदेव श्रावक ने कोई भी प्रत्युत्तर न दिया । दृढ़चित्त कामदेव को ध्यान में अडोल देखकर दुष्टाशय देव ने इसी प्रकार दो-तीन बार फिर वे ही बातें दोहराई,
| फिर भी जब वह चलित नहीं हुआ, तब सूंडदंड से उठाकर आकाश में ऊँचा उछाला, फिर वापिस गिरते हुए को घास के पूले की तरह झेल लिया और दंतशूल से बींध डाला। तत्पश्चात् उसे पैरों से कुचला । धर्मकार्यों के विरोधी दुरात्मा कौन-सा अकार्य नहीं कर बैठते ? लेकिन महासत्व कामदेव ने यह सब धैयपूर्वक सहन किया। वह पर्वत के समान | अडोल रहा। उसने जरा भी स्थिरता नहीं छोड़ी। ऐसे उपसर्ग (विपत्ति) आ पड़ने पर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हुआ, तब अहंकारी अधमदेव ने सांप का रूप बनाया। और पूर्ववत् फिर उसने कामदेव को डराने की चेष्टाएँ कीं । परंतु धीर पुरुष अपने ध्यान में एकाग्र था । वह जरा भी डरा नहीं, डिगा नहीं। अपने वचन निष्प्रभाव और निष्फल होते
वह
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