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विविध गतियों की दुःखमय स्थिति एवं उपसर्गों में दृढ़ता का चिंतन करे योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३५ से १३७ ही गया है। लोकप्रचलित कहावत है कि अपने घर के आंगन में पैदा हुए आक के पेड़ में मधु मिल जाय तो कौन ऐसा मूर्ख होगा जो पहाड़ पर चढ़ने का परिश्रम करेगा? अनायास ही इष्ट पदार्थ की सिद्धि जाय तो कोई भी विद्वान प्रयत्न नहीं करता ।। १३४ ।। तथा नींद खुल जाने पर इस प्रकार चिंतन करे
अर्थ :
||३०६। सङ्कल्पयोनिनाऽनेन, हहा ! विश्वं विडम्बितम् । तदुत्खनाभि सङ्कल्पं, मूलमस्येति चिन्तयेत्॥१३५॥ ओहो! संकल्प से उत्पन्न होने वाले इस कामदेव ने तो सारे संसार को विडंबना में डाल रखा है। अतः मैं विषय-विकार की जड़ इस संकल्प विकल्प को ही उखाड़ फेंकूँगा । इस प्रकार का चिंतन करे । । १३५ । । व्याख्या : - काम की कल्पना या केवल विचार करना उसकी उत्पत्ति का वास्तविक कारण नहीं माना जाता; फिर भी संकल्प उसकी योनि अर्थात् उत्पत्ति-कारण है; यह सारे विश्व में अनुभवसिद्ध है। इस कामदेव ने सारे जगत् को | परेशान कर रखा है। 'समग्र विश्व' इसलिए कहा गया है कि ब्रह्मा, इंद्र, महादेव आदि मान्य व्यक्ति भी स्त्री के दर्शन, आलिंगन, स्मरण आदि कारणों से इसकी विडंबना से नहीं बचे । सुना है, पुराणों में उल्लेख है कि महादेव और गौरी के विवाह में ब्रह्माजी पुरोहित बने थे, पार्वती से महादेव ने प्रणय-प्रार्थना की थी, गोपियों की अनुनय-विनय श्रीपति विष्णु ने की थी, गौतमऋषि की पत्नी के साथ क्रीड़ा करने वाला इंद्र था, बृहस्पति की भार्या तारा पर चंद्र आसक्त था और अश्वा पर सूर्य मोहित था । इस कारण ऐसे निःसार हेतु खड़े करके कामदेव ने जगत् को हैरान कर डाला है। यह अनुचित है। अतः अब मैं जगत् को विडंबित करने वाले काम के मूल संकल्प को ही जड़मूल से उखाड़ फेंकूँगा; इस प्रकार स्त्रीशरीर के अशुचित्व एवं असारत्व पर तथा संकल्पयोनि (काम) के उन्मूलन इत्यादि पर चिंतन-मनन | करे । । १३५ ।। तथा निद्राभंग होने पर ऐसा भी विचार करे
| | ३०७ | यो यः स्याद् बाधको दोषस्तस्य तस्य प्रतिक्रियाम् । चिन्तयेद् दोषमुक्तेषु, प्रमोदं यतिषु व्रजन् ॥१३६॥
अर्थ :- दोष से मुक्त मुनियों पर प्रमोदभाव रखकर अपने में जो-जो बाधक दोष दिखायी देता हो, उससे मुक्त होने के प्रतिकार ( उपाय ) का विचार करे ।। १३६ ।।
व्याख्या :- प्रशांतचित्त के बाधक दोष राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, मोह, लोभ, काम, ईष्या, मत्सरादि दिखायी
| देते हैं। अतः उनका प्रतिकार करने के लिए चिंतन-मनन करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि राग हो तो उसके प्रतिपक्षी | वैराग्य का विचार करे, इसी प्रकार द्वेष के समय मैत्रीभाव, क्रोध के समय क्षमा, मान के समय नम्रता, मायां के समय सरलता, लोभ के समय संतोष, मोह के समय विवेक, कामविकार की उत्पत्ति के समय स्त्री-शरीर के विषय में अशौच भावना, ईर्ष्या के समय ईर्ष्यापात्र व्यक्ति को कार्य में सहायता देकर या उसके प्रति सद्भाव रखकर, मत्सर के | समय दूसरे की तरक्की देखकर प्रमोदभाव (चित्त में दुःख न मानकर ) = प्रसन्नता की अभिव्यक्ति, इस प्रकार प्रत्येक दोष की प्रतिक्रिया का मन में विचार करना चाहिए। ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए कि ऐसा करना असंभव है। क्योंकि इस | विश्व में अनेक मुनिवर एवं गुणिजन सफल दिखायी देते हैं; जिन्होंने जड़ जमाये हुए कठोरतम दोषों का भी त्याग करके | आत्मा को गुणसंपन्न बनायी है। इसलिए कहा है - सद्गृहस्थ को दोषों से रहित मुनियों पर प्रमोदभाव रखते हुए बाधक | दोषों से मुक्त होने का विचार करना चाहिए। दोषमुक्त मुनि के दृष्टांत से (आदर्श जीवन से) आत्मा में प्रमोदभाव जागृत होता है और आत्मा में जड़ जमाये हुए दोषों को छोड़ने में आसानी रहती है ।। १३६ ।।
। ३०८। दुस्थां भवस्थितिं स्थेम्ना, सर्वजीवेषु चिन्तयन् । निसर्गसुखसर्गं तेष्वपवर्गं विमार्गयेत् ॥ १३७||
अर्थ :- स्थिर होकर, वह चिंतन करे कि संसार - परिभ्रमण सभी जीवों के लिए अटपटा व दुःखमय है। अतः इस प्रकार का युक्तिपूर्वक विचार करे कि संसार के सभी जीव कैसे शाश्वत व स्वाभाविक मोक्षसुख प्राप्त करें? ।।१३७।।
व्याख्या : - सभी जीवों की भवस्थिति बड़ी दुःसह व बेढ़ब है। जीव कभी तियंचगति में, कभी नरकगति में कभी | मनुष्यगति में और कभी देवगति में जाता है; जहां उसे तरह-तरह की यातनाएँ मिलती है । तियंचगति में वध-बंधन, मार, पराधीनता, भूख, प्यास, अतिभार लादना, अंगों-अवयवों का छेदन आदि दुःख सहने पड़ते हैं। नरकगति में एक
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