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स्त्री के अंग का वास्तविक स्वरुप तथा उसका घणित शरीर
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३२ से १३४ हा-गुरुदेव! मेरा ऐसा कौन-सा अपराध है. जिससे आपने मुझे वाचना देने से इन्कार कर दिया? मुझे तो अपराध याद नहीं आता। अतः गुरु ने कहा-शांतम्! पापम्! गजब की बात है! अपराध करके भी तुम्हें वह याद नहीं आता? यह कहते ही स्थूलभद्रमुनि को अपनी भूल का खयाल आया। उसी समय वे गुरुजी के चरणों में पड़कर माफी मांगने लगे और बोले 'गुरुदेव! भविष्य में ऐसी गलती कदापि नहीं करूंगा। इस बार तो मुझे माफ कर दीजिए। भविष्य में तुम ऐसी गलती नहीं करोगे, परंतु अभी तो तुमने अपराध किया है। इसलिए अब तुमको वाचना नहीं दी जानी चाहिए ऐसा आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने कहा। उसके बाद मुनि स्थूलभद्रजी के कहने से सकल संघ ने मिलकर गुरुमहाराज से प्रार्थना की। महाकोप होने पर भी उस पर प्रसन्न होने में महापुरुष ही समर्थ होते हैं। आचार्यश्री ने संघ से कहा-इस समय इसने ऐसा किया है, तो इसके बाद मंदसत्व आत्माएँ भी इसी प्रकार इसका उपयोग करेंगे। इसलिए बाकी के पूर्व मेरे पास ही रहने दो, इस भूल का दंड उसे ही मिले और दूसरे को पूर्व पढ़ाने वाले को भी मिलना चाहिए। बाद में संघ के अतिआग्रह पर उन्होने ज्ञान से उपयोग लगाकर देखा तो मालूम हुआ कि शेष पूर्व मेरे से तो विच्छिन्न नहीं होने वाले है; परंतु भविष्य में अन्य महामुनि से विच्छेद होने की संभावना है; अब बाकी के पूर्व तुम्हें किसी दूसरे को नहीं पढ़ाने है। इस प्रकार शर्त तय होने के बाद भद्रबाहुस्वामी ने स्थूलभद्र मुनि को वाचना दी। इस प्रकार स्थूलभद्र महामुनि समस्त पूर्वो को धारण करने वाले हुए। बाद में आचार्यपद प्राप्त कर उन्होंने भविष्य के कल्याण के लिए जीवों को प्रतिबोध दिया। स्त्री-संबंध से निवृत्ति प्राप्त कर समाधिभाव में लीन बने श्रीस्थूलभद्रमुनि क्रमशः देवलोक में गये। इस प्रकार उत्तम साधुवर्ग एवं बुद्धिमान भव्य-आत्माएँ सर्वप्रकार से सांसारिक सुखों के त्याग रूप विरति की भावनाओं का चिंतन करे। इस प्रकार स्थूलभद्र मुनि का संक्षिप्त जीवन वृत्तांत पूर्ण हुआ ।।१३१ ।।
अब स्त्रियों के अंगों का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करते हैं।३०३। यकृच्छकृन्मल-श्लेष्म-मज्जाऽस्थिपरिपूरिताः । स्नायुस्यूता बहिरम्याः, स्त्रियश्चर्मप्रसेविकाः।।१३२॥ अर्थ :- जैसे जिगर का टुकड़ा, विष्ठा, दांत, नाक, कान व जीभ का मैल, श्लेष्म, मज्जा, वीर्य, रुधिर, हाड़ आदि
के टुकड़े भरकर चमड़े के तार से सिली हई मशक बाहर से संदर दिखायी देती है, वैसे ही स्त्रियों का
शरीर सिर्फ बाहर से रमणीय लगता है, उसके अंदर तो जिगर, मांस, विष्ठा, मल, श्लेष्म, कफ, मज्जा,
___ चर्बी, खून और हड्डियाँ आदि भरे हैं, केवल ऊपर चमड़ा मढ़ा हुआ है ।।१३२।। |१३०४। बहिरन्तर्विपर्यासः, स्त्रीशरीरस्य चेद् भवेत् । तस्यैव कामुकः कुर्याद्, गृद्ध-गोमायु-गोपनम्।।१३३।। अर्थ :- यदि स्त्री के शरीर को उलट-पलट दिया जाय अर्थात् भीतरी भाग को बाहर और बाहर के भाग को भीतर
कर दिया जाय; तो कामी पुरुष को दिन-रात गिद्धों, सियारों आदि से उसकी रक्षा के लिए पहरा बिठाना पड़े। खाने के पदार्थ मांस आदि देखकर दिन में गिद्ध और रात को सियार खाने के लिए आते हैं। कामुक आदमी उन्हें हटाते-हटाते ही हैरान हो जायेगा। उस घिनौने शरीर के साथ संभोग करने का अवसर नहीं
मिलेगा ।।१३३।। ||३०५। स्त्री शस्त्रेणापि चेत्कामो, जगदेतज्जिगीषति । तुच्छपिच्छमयं शस्त्रं, किं नादत्ते स मूढधीः?।।१३४।। अर्थ :- यदि मूढ़मति कामदेव स्त्री-शरीर रूपी गंदे शस्त्र से सारे जगत को जीतना चाहता है तो फिर वह पिच्छ
रूप तुच्छ शस्त्र को क्यों नहीं ग्रहण करता? ॥१३४।। व्याख्या :- यदि कामदेव घिनौने स्त्री-शरीर रूपी शस्त्र से तीन जगत् को जीतना चाहता है तो फिर मूढ़बुद्धि वाले कौए आदि के पंख के रूप में तुच्छ शस्त्र क्यों नहीं ग्रहण कर लेता? कहने का तात्पर्य यह है कि 'यदि कामदेव असार एवं श्लेष्म, कफ आदि तथा रस, रक्त, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा, शुक्र आदि गंदे पदार्थों से भरे हुए और कठिनाई से प्राप्त होने वाले स्त्री रूपी शस्त्र से सारे संसार को नमाकर जीतने की अभिलाषा करता है तो फिर अनायास सुलभ और अपवित्रता से रहित कौएँ आदि के पंख को लेकर अपना हथियार बना लेता।' हो न हो, वह मूर्ख इस बात को भूल 1. अन्य कथा में मूल ही सिखाया ऐसा उल्लेख है।
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