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था: एसा ।
कामदेव का कथानक
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३८ दूसरे के वैर-विरोध व क्लेश की उदीरणा (प्रेरणा) से परमाधामियों से और क्षेत्र के कारण नाना प्रकार की यातनाएँ स्वाभाविक ही भोगनी पड़ती है। करौत से शरीर काटना, कुंभी में पकाना, खराब नोकदार कार्टो वाले शाल्मली वृक्ष से आलिंगन कराना, वैतरणी नदी में तैरना इत्यादि महादुःख है। मनुष्यभव में भी दरिद्रता, व्याधि, रोग, पराधीनता, वध, बंधन आदि कई दुःख है। देवगति में भी ईर्ष्या, विषाद, दूसरों की संपत्ति देखकर जलना, च्यवन (मरण), ६ महीनों का संताप इत्यादि दुःख है। इस प्रकार संसार-परिभ्रमण दुःख रूप है; ऐसी दुःखद स्थिति पर चिंतन करे कि संसार के सभी मोहमायालिस जीव जन्म-मरण आदि सभी दुःखों से मुक्त होकर मोक्ष को कैसे प्राप्त करें? जागने के बाद इस प्रकार चिंतन करे।३०९। संसर्गेऽप्युपसर्गाणां दृढव्रतपरायणाः । धन्यास्ते कामदेवाद्याः, श्लाघ्यास्तीर्थकृतामपि ॥१३८।। अर्थ :- देव, मनुष्य और तिर्यच आदि के द्वारा कृत उपसर्गों का संपर्क हो जाने पर भी अपने व्रत के रक्षण और
पालन में दृढ़ श्रीकामदेव आदि श्रावकों को धन्य है। जिनकी प्रशंसा तीर्थकर भगवान् महावीर ने भी की
थी; ऐसा चिंतन करे ।।१३८॥ कामदेव श्रावक की संप्रदायपरंपरागत कथा इस प्रकार हैउपसर्ग के समय प्रत में दृढ़ : कामदेय श्रायक :
गंगानदी के किनारे झुके हुए बांसों की कतार के समान मनोहर एवं चैत्य-ध्वजाओं से सुशोभित चंपानाम की महानगरी थी। वहां पर सर्प के शरीर के समान लंबी भुजाओं वाला, लक्ष्मी के कुलगृहसदृश जितशत्रु राजा राज्य करता | था। इसी नगरी में मार्ग पर स्थित विशाल छायादार वृक्ष के समान अनेक लोगों का आश्रयदाता एवं बुद्धिशाली कामदेव गृहस्थ रहता था। साक्षात् लक्ष्मी की तरह, रूप-लावण्य से सुशोभित उत्तम-आकृतिसंपन्न भद्रा नाम की उसकी धर्मपत्नी थी। कामदेव के पास छह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ जमीन में गाड़ी हुई सुरक्षित थी; इतनी ही मुद्राएँ व्यापार में लगी हुई थी और इतना ही धन घर की साधन-सामग्री वगैरह में लगा हुआ था। उसके यहां ६ गोकुल थे, प्रत्येक में १० हजार गायों का परिवार था। __एक बार विभिन्न जनपदों में विचरण करते हुए भगवान् महावीर वहां पधारें। वे नगरी के बाहर पृथ्वी के मुखमंडन पूर्णभद्र नामक उद्यान में बिराजे। कामदेव ने सुना तो वह भी प्रभु-चरणों में पहुँचा और उनकी कर्णप्रिय सुधामयी धर्मदेशना सुनी। उसके बाद विश्ववन्द्य भगवान् महावीर से निर्मलबुद्धि कामदेव ने बारह व्रतों वाला गृहस्थधर्म अंगीकार किया। कामदेव ने भद्रा के सिवाय अन्य समस्त स्त्रीसेवन का त्याग किया। छह गोकुल के अलावा अन्य सभी गोकुलों का और निधान, व्यापार गृहव्यवस्था के लिए क्रमशः छह-छह करोड़ स्वर्णमुद्राओं के उपरांत धन का त्याग किया। खेती के लिए ५०० हलों की जमीन में पांच-सौ खेतों का परिमाण किया। इतने ही छकड़े, गाड़ियाँ परदेश से माल लाने
उसके उपरांत का त्याग किया और परदेश लाने-पहंचाने वाली चार सवारी गाडियाँ मर्यादा में रखीं। बाकी गाड़ियों का त्याग किया। एक सुगंधित काषायवस्त्र (तौलिया) अंग पोंछने के लिए रखकर, अन्य सब का त्याग किया। हरी मुलहठी का दांतुन रखकर अन्य किस्म के दांतुनों का तथा क्षीर-आमलक के सिवाय अन्य फलों का त्याग किया, तेलमर्दन करने के लिए सहस्रपाक अथवा शतपाक के अलावा तेलों के इस्तेमाल का त्याग किया। शरीर पर लगाने वाली खुशबूदार मिट्टी की उबटन के अलावा तमाम उबटनों का त्याग किया। तथा स्नान के लिए आठ घड़ों से अधिक पानी इस्तेमाल करने का त्याग किया; चंदन व अगर के घिसे हुए लेप के सिवाय अन्य लेप तथा पुष्प-माला और कमल के अतिरिक्त फूलों का त्याग किया। कानों के गहने तथा अपने नाम वाली अंगूठी के अलावा आभूषणों का त्याग किया। दशांग और अगरबत्ती की धूप के सिवाय और धूपों का त्याग किया। घेवर और खाजा रखकर अन्य सभी मिठाईयों का त्याग किया। पीपरामूल आदि से उबालकर तैयार किये हुए काष्ठपेय (गुड़राब) के अलावा पेय, कलमी चावल के सिवाय अन्य चावल तथा उड़द, मूंग और मटर के अतिरिक्त दालों (सूपों) का त्याग किया; शरदऋतु में निष्पन्न गाय के घी के सिवाय अन्य स्निग्ध वस्तुओं का स्वस्तिक.मंडक और पालक की भाजी के सिवाय अन्य भाजी का त्याग किया। वर्षाजल के अतिरिक्त जल का एवं सुगंधित तांबूल के सिवाय तांबूल का त्याग किया। इस प्रकार नियम लेकर भगवान को वंदन कर कामदेव अपने घर आया। उसकी धर्मपत्नी भद्रा ने भी जब अपने
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