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श्रावक के ६ मनोरथों का वर्णन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३९ से १४१ देखकर तथा कामदेव को और ज्यादा निर्भीक व मजबूत देखकर वह सर्पाकार अधम देव तबले पर जैसे चमड़ा मढ़ा जाता है; वैसे ही सर्प के रूप में उसके सारे शरीर पर लिपट गया और कामदेव को निर्दयतापूर्वक तीक्ष्ण दांतों से अत्यंत जोर से डसा। फिर भी अपने ध्यानामृत में मस्त बने कामदेव ने इस वेदना की कुछ भी परवाह नहीं की। तदनंतर सब ओर से हार-थककर उस देव ने अपना असली दिव्य रूप बनाया। फिर चारों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए उसने पौषधशाला में प्रवेश किया और नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कामदेव से कहने लगा-धन्य हो कामदेव, आपको वास्तव में इंद्र ने देवसभा में जब आपकी प्रशंसा की, तब मैं उसे सहन न कर सका। इसलिए मैं यहां आपको चलायमान करने के लिए आया था। क्योंकि कभी-कभी स्वामी भी अपने स्वामित्व के अभिमान में आकर वास्तविक से विपरीत तथ्य को गलत रूप में भी प्रस्तुत कर देते हैं। इस कारण मैंने विविध रूप बनाकर तरह-तरह से आपकी कठोर परीक्षा ली थी। परंतु मुझे कहना होगा कि इंद्रमहाराज ने जैसी आपकी प्रशंसा की थी; वैसे ही आप धीर, वीर, निःशंक एवं धर्म में दृढ़ है। परीक्षा करते समय मैंने आपको बहुत परेशान किया; उसके लिए मैं अपने उन अपराधों की क्षमा चाहता हूं। इस प्रकार कामदेव से बारबार अनुनय-विनय करके देव अपने स्थान को वापिस चला गया। अखंडव्रती कामदेव ने भी अपना कायोत्सर्ग पूर्ण किया। __ गुणों के प्रति सहजभाव से वात्सल्य से ओत-प्रोत श्रीवीरप्रभु ने अपने समवसरण (धर्मसभा) में उपसर्गो को समभाव से सहकर व्रत में दृढ़ रहने वाले कामदेव श्रावक की प्रशंसा की। दूसरे दिन श्रावक कामदेव त्रिभुवन-स्वामी श्रीवीरप्रभु के चरणकमलों में वंदन करने आया, तब भगवान् ने गौतम आदि मुनियों से इस प्रकार कहा-आयुष्यमान श्रमणो! गृहस्थधर्म में भी कामदेव ने ऐसे भयंकर उपसर्गों का समभाव एवं निर्भयता से सामना किया तो फिर साधुधर्मतत्पर सर्व-संग-परित्यागी तुम सरीखे त्यागियों को तो ऐसे उपसर्ग विशेष रूप से सहन करने चाहिए। अपने जीवन की ढलती उम्र में कामदेव श्रावक ने कर्मों को निर्मल करने के उपायभूत श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की क्रमशः आराधना की। अंतिम समय में संलेखना करके अनशनव्रत अंगीकार किया और उत्तम समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर वह अरुणाभ नामक विमान में चार पल्योपम की आयुष्य वाला देव बना। वहां से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धपद प्राप्त करेगा। जिस तरह कामदेव श्रावक ने उपसर्ग के संकटकालीन अवसर पर भी अपने व्रत-पालन में अडिग रहकर स्वाभाविक धैर्य धारण किया था, जिसकी प्रशंसा तीर्थंकर भगवान् ने भी की थी; उसी तरह उत्तम आत्माओं को भी व्रतपालन में धैर्यपूर्वक अडिग रहना चाहिए। यह था कामदेव का दृढ़धर्मिष्ठ जीवन! ।।१३८।।
निद्रात्याग के बाद धर्मात्मा श्रावक को इस प्रकार विचार करना चाहिए।३१०।जिनो देवः कृपा धर्मो, गुरवो यत्र साधवः । श्रावकत्वाय कस्तस्मै, न श्लाघयेत् विमूढ़धीः?॥१३९।। अर्थ :- जिस श्रावकधर्म में रागादि शत्रुओं के आदर्श विजेता देव हैं, पंचमहाव्रत में तत्पर धर्मोपदेशक संयमी
साधु गुरु है; दुःखियों के दुःखों को दूर करने की अभिलाषा रूप दयामय धर्म है, फिर कौन ऐसा मूढ़बुद्धि
होगा, जो इस श्रावकत्व (श्रावकधर्म) की सराहना नहीं करेगा? अवश्य ही तारीफ करेगा। विशेषार्थ :- मगर रागादि-युक्त देव श्रावक के लिए पूजनीय नहीं होते; हिंसामय यज्ञादि रूप धर्म, धर्म नहीं होता और आरंभ-परिग्रह आदि में रचे-पचे साधु गुरु नहीं होते ।।१३९।। अब निद्रात्याग के बाद श्रावक के मनोरथ रूप भावनाएँ सात श्लोकों में प्रस्तुत करते हैं।३११। जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भुवं चक्रवर्त्यपि । स्यां चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्माधिवासितः ॥१४०॥ अर्थ :- ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप जैनधर्म से रहित (वंचित) होकर मैं चक्रवर्ती बनना भी नहीं चाहता;
क्योंकि धर्म के बिना वह पद नरक में ले जाता है। किन्तु जैनधर्म से सुसंस्कृत परिवार में दरिद्र या दास
होना मुझे स्वीकार है, क्योंकि वहां धर्मप्राप्ति सुलभ है ।।१४०।। ||३१२। त्यक्तसङ्गो जीर्णवासा, मलक्लिन्नकलेवरः । भजन् माधुकरी वृत्तिं, मुनिचाँ कदा श्रये? ॥१४१।।
___ अर्थ :- मेरे लिये कब वह मंगलमय शुभ दिन आयेगा, जब मैं सभी परपदार्थों के प्रति आसक्ति का त्यागी,
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