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कषाय : लक्षण, भेद-प्रभेद एवं विवेचन
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ४ से ७ को काटने वाला है! समाधान करते हैं कि 'ऐसी बात नहीं है, सभी विषयों में आत्मा की ही मुख्यता है। कर्म के कारणभूत, शरीर धारण करने में आत्मा ही दुःखी होती है और कर्म के क्षय होने से वही आत्मा सिद्ध स्वरूप होने पर सुखी होती है ।।३।।
इसी बात को आगे कहते हैं।३३०। अयमात्मैव चिद्रूपः शरीरी कर्मयोगतः । ध्यानाग्निदग्धकर्मा, तु सिद्धात्मा स्यान्निरञ्जनः ।।४।। अर्थ :- समस्त प्रमाणों से सिद्ध आत्मा वास्तव में चेतन-ज्ञानस्वरूप है; क्योंकि 'जीव का लक्षण उपयोग है।
शरीरी तो वह कर्म के संयोग से बनता है। किन्तु अन्य विषयों में ऐसा नहीं बनता, इससे अन्य विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। जब यह आत्मा ही शुक्लध्यान रूपी अग्नि से समस्त कर्म
रूपी इंधन को भस्म कर शरीर रहित हो जाती है, तब मुक्त स्वरूप सिद्धात्मा निरंजन निर्मल बन जाती है ।।४।। ।३३१। अयमात्मैव संसारः कषायेन्द्रियनिर्जितः । तमेव तद्विजेतारं, मोक्षमाहुर्मनीषिणः ।।५।। अर्थ :- कषाय और इंद्रियों के वशीभूत यह आत्मा ही नरक-तिर्यच-मनुष्य-देवगति-परिभ्रमण रूप संसार है ___ और जब यही आत्मा कषायों और इंद्रियों को जीत लेती है, तो उसी को बुद्धिशाली पुरुषों ने मोक्ष कहा
है ।।५।। व्याख्या :- स्व स्वरूप की प्राप्ति के अतिरिक्त कोई मोक्ष नहीं है, जो आनंद-स्वरूप है, उसमें भी आत्मा अपना स्वरूप ही प्राप्त करती है। इस कारण से आत्म-ज्ञान की उपासना करनी चाहिए। दर्शन और चारित्र भी उसीमें गीतार्थ होकर प्राप्त हो जाते हैं। आत्मा को इस श्लोक में कषायों और इंद्रियों का विजेता कहा है ।।५।।
अतः सर्वप्रथम कषायों का विस्तार से निरूपण करते हैं।३३२। स्युः कषायाः क्रोध-मान-माया-लोभाः शरीरिणाम् । चतुर्विधास्ते प्रत्येकं, भेदैः सज्वलनादिभिः।।६।। अर्थ :- क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं, जो शरीरधारी आत्मा में होते हैं। संज्वलन आदि के भेद | .
से क्रोधादि प्रत्येक कषाय के चार-चार भेद हैं ।।६।। व्याख्या :- क्रोध, मान, माया और लोभ को कषाय कहा जाता है। अथवा जिससे जीवों की हिंसा हो, उसे कषाय कहते हैं। 'कष्' का अर्थ है-संसार अथवा कर्म और उसका 'आय' अर्थात् प्रास होना कषाय है। इसके कारण बारबार संसार में आवागमन करना पड़ता है। कषाय शरीरधारी संसारी जीवों को ही होता है, मुक्तात्मा को नहीं होता। क्रोधादि चार प्रकार का कषाय संज्वलनादि के भेद से प्रत्येक चार-चार प्रकार का है। जैसे-क्रोध के चार भेद हैंसंज्वलनक्रोध, प्रत्याख्यानावरणक्रोध, अप्रत्याख्यानावरणक्रोध और अनंतानुबंधी क्रोध। इसी तरह मान, माया और लोभ के भी चार-चार भेद समझ लेना ।।६।।
अब संज्वलनादि कषायों के लक्षण कहते हैं।३३३। पक्षं सज्वलनः प्रत्याख्यानो मासचतुष्टयम् । अप्रत्याख्यानको वर्ष, जन्मानन्तानुबन्धकः ॥७॥ ____ अर्थ एवं व्याख्या :- संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ की कालमर्यादा पंद्रह दिन तक की रहती है। संज्वलनकषाय घास की अग्नि के समान अल्पसमय तक जलाते हैं। अथवा परिषह आदि के आने से जलने का स्वभाव | हो जाता है। प्रत्याख्यान-जैसे भीमसेन को भीम कहा जाता है, वैसे ही यहां प्रत्याख्यानावरण शब्द को संक्षेप में | |'प्रत्याख्यान' कहा है। प्रत्याख्यानावरण-कषाय सर्वविरति प्रत्याख्यान (नियम) को रोकने वाला है। यह चार महीने तक | रहता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय में 'नब' समास अल्पार्थक है. इसलिए अर्थ हआ-जो देशविरति प्रत्याख्यान को रोकता है। इसके चारों कषाय एक वर्ष तक रहते हैं। अनंतानुबंधी कर्म बांधने वाला कषाय मिथ्यात्व-सहित होने से | अनंतभवों तक उसकी परंपरा चलती है। अनंतानुबंधी क्रोधादि-कषाय जन्मपर्यंत तक रहता है। प्रसन्नचंद्र राजर्षि आदि| के क्षणमात्र की स्थिति होने पर भी वह अनंतानुबंधी कषाय है, अन्यथा नरक-योग्य कर्मों के उपार्जन का अवसर नहीं आता।।७।।
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