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स्थूलभद्र मुनि आदि साधु श्री भद्रबाहु स्वामि के पास
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३१ चलायमान नहीं हुए। जहां अग्नि के समान स्त्री के पास रहने से धातु के समान कठोर हृदय पुरुष भी पिघल जाते हैं; वहां हम उस महामुनि स्थूलभद्र को वज्रमय ही देखते हैं। दुष्करातिदुष्कर कार्य करने वाले महासत्त्वशाली श्री स्थूलभद्रमुनि का वर्णन करने के बाद अब दूसरे का वर्णन करने को मुंह नहीं खुलता। उस पर ताला ही लगाना जरूरी है। यह सुनते ही रथकार ने कोशा से पूछा-तुम जिसकी इतनी प्रशंसा कर रही हो; वह महासत्वशिरोमणि स्थूलभद्र कौन है? तब उसने कहा-जिसका चरित्र-चित्रण मैंने तुम्हारे सामने किया है; वह नंदराजा के मंत्री स्व शकटाल का पुत्र स्थूलभद्र है। यह सुनकर आश्चर्यमुद्रा से रथी हाथ जोड़कर कहने लगा तो समझ लो! आज से मैं भी उन स्थूलभद्र महामुनि का एक सेवक हूं। रथकार को संसार विरक्त देखकर कोशा ने उसे धर्म का ज्ञान देकर उसकी बची-खुची मोहनिद्रा भी नष्ट कर दी। अब वह प्रतिबोधित हो चुका था। अतः कोशा ने उपयुक्त अवसर जानकर उसे अपना ग्रह (संकल्प-नियम) बताया। जिसे सुनकर विस्मय से विस्फारित नेत्रों से रथी ने कहा-भद्रे! स्थूलभद्रमुनि के
रते हुए तुमने मुझे प्रतिबोधित किया है। अतः आज से में तुम्हारे बताये हुए मार्ग पर ही चलूंगा। तुम अपने स्वीकृत अभिग्रह पर सुखपूर्वक बेखटके दृढ़तापूर्वक चलो। लो मैं जाता हूं; तुम्हारा कल्याण हो। यों कहकर रथकार सीधा स्थूलभद्रमुनि के चरणों में पहुंचा और उनसे उसने मुनिदीक्षा अंगीकार कर ली। . मुनिवरेण्य स्थूलभद्र भी कठोर व्रतों की आराधना करते हुए कालयापनकर रहे थे। अकस्मात् लगातार बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा। उस समय सारा साधु-संघ समुद्रतट पर चला गया। वहां पर भी कालरात्रि के समान भयंकर दुष्काल की छाया पड़ी हुई थी। साधुओं को भी आहारपानी सुलभ नहीं था। इस कारण शास्त्र-स्वाध्याय न होने से श्रुतज्ञान की आवृत्ति न होने के कारण जो कुछ शास्त्र (श्रुत) कंठस्थ था, वह भी विस्मृत होने लगा। अभ्यास और आवृत्ति के बिना बड़े-बड़े बुद्धिमानों का पढ़ा हुआ कंठस्थ श्रुतज्ञान भी नष्ट हो जाता है। अतः अब शेष श्रुतज्ञान को नष्ट होने से बचाने के लिए श्रीसंघ ने उस समय पाटलीपुत्र में श्रमणसंघ को एकत्रित किया और जिन-जिन को जितने-जितने अंग. अध्ययन. उद्देश्य आदि कंठस्थ याद थे. उन सबको सनकर एवं अवधारणकर श्री अंगों को संगृहीत किया। बारहवां अंग दृष्टिवाद नहीं मिल रहा था, विचार करते-करते संघ को याद आया कि श्रीभद्रबाहु स्वामी दृष्टिवाद के ज्ञाता है। उनसे इसे उपलब्ध किया जाय। अतः उन्हें बुलाने के लिए संघ ने दो साधुओं को भेजा। वे दोनों मुनि भद्रबाहु की सेवा में पहुंचे। वंदन करके करबद्ध होकर उन्हें निवेदन किया-भगवन्! श्री संघ ने आपको पाटलीपुत्र पधारने के लिए आमंत्रित किया है। इस पर उन्होंने कहा-मैंने महाप्राण-ध्यान प्रारंभ किया है, अतः मेरा वहां आना नहीं हो सकता। यह निराशाजनक उत्तर लेकर दोनों मुनि श्रमणसंघ के पास लौट आये और भद्रबाहुस्वामी ने जो कहा था, उसे कह सुनाया। श्री (श्रमण) संघ ने इस पर क्षुब्ध होकर अन्य दो मुनियों को उन्हें बुला लाने की आज्ञा दी कि 'तुम आचार्यश्री के पास जाकर कहना-जो आचार्य श्रीसंघ की आज्ञा न माने, उसे क्या दंड दिया जाना चाहिए?' जब वे यह कहें कि 'उसे संघ से बहिष्कृत कर देना चाहिए।' तब तुम दोनों एक साथ उच्चस्वर से आचार्यश्री से कहना-तो भगवन्! आप भी उस दंड के भागी हैं! दोनों मुनि वहां पहुंचे और उन्होंने आचार्यश्री को उसी तरह कहा। अतः आचार्य भद्रबाहु ने कहा-श्रीसंघ भगवान् मेरे प्रति ऐसा न करे। परंतु मुझ पर कृपा करके बुद्धिमान शिष्यों को यहां भेजे। मैं यहां रहते हुए ही उन्हें प्रतिदिन सात वाचना दूंगा। पहली वाचना भिक्षाचर्या करके लौटते ही दूंगा; दूसरी स्वाध्यायकाल में, तीसरी बहिर्भूमि से वापिस आने पर और चौथी विकाल के समय तथा शेष तीन वाचनाएँ आवश्यक समय पर दूंगा। इस तरह प्रतिदिन सात वाचना दूंगा; जिससे संघ का कार्य भी सुंदर हो जायगा
और मेरी साधना भी निर्विघ्न सिद्ध हो जायगी। यह सुनकर वे दोनों मुनि वापिस पाटलीपुत्र लौटे और श्री भद्रबाहु ने जैसा कहा था, वह उन्होंने श्रीसंघ के सामने प्रस्तुत कर दिया। इससे श्रीसंघ प्रसन्न होकर अपने को भाग्यशाली मानने लगा। श्रीसंघ ने इस पर विचार करके स्थूलभद्र आदि पांच-सौ मुनियों को वहां भेजा। भद्रबाहुस्वामी पांचसौ मुनियों को प्रतिदिन सात वाचना देने लगे। परंतु अति अल्प वाचना होने के कारण उद्विग्न होकर अन्य सभी मुनिवर तो अपनेअपने स्थान पर लौट गये। केवल एक स्थूलभद्रमुनि ही वहां रहे। ___एक दिन आचार्यश्री भद्रबाहु-स्वामी ने स्थूलभद्रमुनि से पूछा-मुने! तुम्हें सतत वाचना से उद्वेग तो नहीं होता?
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