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कोशा द्वारा सिंहगुफावासी मुनि एवं रथकार को प्रतिबोध
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३१ के बाद फिर तोता बोला-यह लाख मूल्य वाला जा रहा है। अतः चोर-सेनापति ने उसे फिर पूछा-भिक्षो! सच सच बता दे! तेरे पास क्या है? तब मुनि ने उससे कहा-मैं तुमसे क्या छिपाऊं, वेश्या को देने के लिए नेपाल-नरे रत्नकंबल प्राप्त किया था। उसे मैंने बांस की नली में छिपा रखा है। कहो तो दे दूं। चोरों ने मुनि को भिक्षु समझकर छोड़ दिया। मुनि वहां से सीधे कोशावेश्या के यहां पहुंचा और उसे वह रत्नकंबल भेंट कर दिया। कोशा ने मुनि के देखते ही देखते तत्काल निःशंक होकर उसे गंदी नाली में फेंक दिया। मुनि ने कहा-भद्रे! इतने महामूल्यवान् और |अतिपरिश्रम से प्राप्त रत्नकंबल को तुमने गंदे नाले में फेंक दिया? शंखग्रीवे! तुमने उसे फेंकते समय जरा भी विचार नहीं किया? इस पर कोशा ने तपाक से कहा-विचारमूढ़ मुने! तुम इस रत्नकंबल की चिंता कर रहे हो, लेकिन स्वयं चारित्ररत्नमय मुनिजीवन को वासना रूपी नरक के गंदे गड्ढे में फेंक रहे हो; उसकी भी कोई चिंता है तुम्हें? यह सुनते ही मुनि एकदम चौंक उठे। कोशा की इस प्रबल फटकार से वे सहसा वैराग्य की ओर मुड़े। अपने को संभालते हुए उन्होंने वेश्या से कहा-बहन! वास्तव में तुमने मुझे आज सोते से जगाया है। सुंदर प्रतिबोध दिया है और संसार-समुद्र से गिरते हुए मुझे बचाया है। वास्तव में तुमने महान् कार्य किया है। अब मैं स्वस्थ हूं और संयमी जीवन में लगे हुए अतिचारों (पापों-दोषों) के उन्मूलन के लिए गुरुमहाराज के चरणों में जा रहा हूं। भाग्यशालिनी! तुम्हें धर्मलाभ हो। कोशा ने भी मुनि से कहा-आपके निमित्त से मैं भी अपराधिनी बनी, उसके लिए 'मिच्छा मि दुक्कडं' देती हूं। ब्रह्मचर्यव्रत में तन्मय होते हए भी आपको मैंने विचलित करने का प्रयत्न किया और नेपाल जाने व आपको प्रतिबोध देने के लिए मैंने आपकी इस प्रकार आशातना की; उसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहती हूं; क्षमा करें। मैं चाहती हूं कि अब आप शीघ्र ही गुरुजी की सेवा में पहुंच जाय। मुनि भी गुरु के पास पहुंचे और उनके सामने आत्मनिवेदन पूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त के रूप में घोर तपश्चरण करने लगे।
एक दिन खुश होकर नंदराजा ने एक रथकार को कोशा वेश्या के यहां भेजा। परंतु वेश्या राजा के अधीन होने से अनुराग रहित होकर उसके साथ सहवास करती थी। रथकार के समक्ष वह सदा यही कहा करती थी कि-स्थूलभद्र | से बढ़कर कोई महापुरुष नहीं है। रथकार ने मन में सोचा-इसे ऐसा कोई चमत्कार बताऊँ, जिससे यह मेरे प्रति अनुराग करने लगे। ऐसा सोचकर एक दिन वह गृहोद्यान में जाकर पलंग पर बैठ गया और कोशा के मनोरंजन के लिए अपना विज्ञान-चातुर्य बतलाया कि आमों के एक गुच्छे को निशाना ताककर एक बाण से बींध दिया। फिर उस बाण को दूसरे बाण से, दूसरे को तीसरे से इस तरह बाणों की कतार अपने हाथ तक लगा दी। बाद में आम के गुच्छों की डाली को अस्त्राकार बाण से काट डाली। ओर तो ओर एक-एक बाण मानो अपने हाथ से पास हो, इस तरह खींचकर आमों का गुच्छा वहीं बैठे-बैठे ही कोशा वेश्या को समर्पितकर दिया। यह देखकर वेश्या ने कहा-अब मेरी भी नृत्य-कला देखीए। यह कहकर उसने सरसों का एक ढेर लगवाया। उस पर बीच में एक सुई खड़ी कर दी। फिर सारे ढेर को फूल की पंखुड़ियों से ढक दिया। तत्पश्चात् उसने उस सुई पर इस ढंग से नृत्य किया कि न तो सुई से उसे जरा भी चोट लगी और न उससे एक भी पंखुड़ी आगे-पीछे हुई। यह देखकर रथकार ने खुश होकर कोशा से कहा-तुम्हारे दुष्कर कार्य को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूं। अतः मेरे पास जो भी वस्तु है, उसे मांगो, मैं तुम्हें अवश्य दूंगा। इस पर वेश्या ने कहामैंने ऐसा कोई दुष्कर कार्य नहीं किया; जिससे आप इतने प्रभावित हुए हैं, बल्कि अभ्यास करने वाला इससे भी अधिक दुष्कर कार्य कर सकता है। यह आम का गुच्छा बींध डालना या सुई पर नृत्य करना, दुष्कर नहीं है, क्योंकि अभ्यास के बल पर यह कार्य सिद्ध हो सकता है। परंतु बिना ही अभ्यास के स्थूलभद्र ने जो कार्य किया है; वह तो सचमुच ही अतिदुष्कर है। जिसने मेरे साथ लगातार बारह वर्ष तक रहकर नित्य-नये विषयसुखों का उपभोग किया; उसी चित्रशाला में चार मास रहकर स्थूलभद्र ब्रह्मचर्य आदि व्रतों में अखंडित और अडोल रहे। जहां नेवले का आवागमन होता है, वहां दूध दूषित होने से बच नहीं सकता; वैसे ही स्त्री के निवास वाले स्थान में पुरुष का दूषित होने से बचना दुष्कर है। स्थूलभद्रमुनि के सिवाय अनेक योगी दूषित हुए हैं। स्त्री के पास एकांत में सिर्फ एक दिन भी अविचलित रहने में कौन समर्थ है? जबकि स्थलभद्रमनि चार महीने तक अखंडब्रह्मचर्यव्रती रहे। यद्यपि उनका आहार षट्रसों से युक्त स्वादिष्ट था; उनका निवास चित्रशाला में था; स्त्री भी उनके पास थी और एकांत स्थान भी था। फिर भी स्थूलभद्र मुनि
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