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स्थूलभद्र मुनि का कोशावेश्या के यहां सफल चातुर्मास
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३१ | उनमें से एक विश्वस्त व्यक्ति ने जो पहले से समझाया हुआ था, सर्वप्रथम दुरात्मा वररुचि को मदनफल का रस लगाकर | सुंदर पद्म कमल भेंट किया। ऐसी अद्भुत सुगंधि और इतनी सुंदरता इस कमल में है; भला यह कहां का होगा? यों | कमल का बखान करते हुए राजा आदि सभी ने अपना-अपना कमल नाक से लगाया । वररुचि भट्ट ने भी सूंघने की उत्सुकता में अपना कमल नाक के पास रखा। कमल को सूंघते ही रात को पी हुई चंद्रहास-मदिरा की उसे उल्टी (वमन) हुई। धिक्कार है! ब्राह्मण जाति में मृत्युदंड के योग्य मदिरापान करने वाले इस नराधम को ! इस प्रकार सबके द्वारा | तिरस्कृत होकर वररुचि सभा से बाहर निकल भागा। बाद में अपनी शुद्धि के लिए उसने ब्राह्मण-पंडितों से प्रायश्चित्त | मांगा। इस पर उन्होंने कहा - मदिरापान के पाप की शुद्धि उबलते हुए गर्मागर्म शीशे का रस पीने के प्रायश्चित्त से ही हो सकती है। वररुचि भी ब्राह्मणों द्वारा दी गयी प्रायश्चित्त-व्यवस्थानुसार शीशे को एक इंडिया में गर्म करके उसे पी गया। | उसके शरीर का आंतरिक भाग गर्मागर्म शीशे के पीने से कुछ ही देर में गल गया और उसके प्राणपंखेरू उड़ गये। इधर स्थूलभद्र मुनि भी आचार्य श्रीसंभूतिविजय के पास ज्ञान दर्शन - चारित्र की आराधना करते हुए श्रुतसमुद्र में पारंगत हुए। वर्षावास निकट आते ही एक मुनि ने गुरुमहाराज श्री संभूतिविजय को वंदना करके उनके सामने अपने | अभिग्रह (संकल्प) का निवेदन किया - गुरुदेव ! मैं चार महीने उपवास करके सिंह की गुफा के द्वार पर काउस्सग्ग (ध्यान) में खड़ा रहकर वर्षावास बिताऊंगा। दूसरे मुनि ने निवेदन किया कि मैं चार महीने उपवास करके दृष्टिविष सर्प | की बांबी के पास काउस्सग्ग करके रहूंगा। तीसरे मुनि ने चार महीने उपवास करके कुँए की चौखट पर मंडूकासन से काउस्सग्ग करके रहने का अभिग्रह निवेदित किया। तीनों साधुओं को अभिग्रह के योग्य जानकर गुरु महाराज ने आज्ञा | दे दी। उस समय स्थूलभद्रमुनि ने गुरुमहाराज की सेवा में वंदन करके निवेदन किया- प्रभो ! मैंने ऐसा अभिग्रह किया | है कि मैं कामशास्त्र में कथित विचित्र करण, आसन आदि शृंगाररस - उत्तेजक चित्रों से परिपूर्ण कोशा वेश्या की चित्रशाला | में तपश्चरण किये बिना षड्रसयुक्त भोजन करते हुए चौमासे के चार महीने व्यतीत करूं, गुरुमहाराज ने श्रुतज्ञान में | उपयोग लगाकर देखा और स्थूलभद्र को उक्त अभिग्रह के योग्य जानकर अनुमति दे दी। अतः चारों साधु अपना-अपना | मनोनीत अभिग्रह पूर्ण करने के लिए अपने-अपने मनोनीत स्थल पर पहुंच गये । स्थूलभद्र मुनि भी कोशा वेश्या के | | गृहद्वार पर पहुंचे। कोशा को पता लगते ही बाहर निकलकर वह हाथ जोड़कर स्वागत के लिए उपस्थित हुई । कोशा | ने मुनि को देखकर सोचा - स्वभाव से ही सुकुमारतन, केले के स्तंभ के समान जंघा से महाव्रतभार उठाने में असमर्थ, | मुनिश्री मेरे यहां पधारे हैं। अतः तुरंत ही कोशा ने कहा- स्वामिन्! स्वागत् है आपका ! पधारिये और मुझे अंब आज्ञा |दीजिए कि मैं क्या करूं? यह तन, मन, धन, परिवार सब आपका ही है। स्थूलभद्र मुनि ने कहा- भद्रे ! मुझे चातुर्मास | में निवास के लिए अपनी चित्रशाला दो । उत्तर में कोशा ने कहा- स्वामिन्! आप सहर्ष ग्रहण कीजिए इसे । और उसने | अपनी चित्रशाला झाड़ - पोंछकर उनके रहने के लिए तैयार कर दी। अतः मुनि स्थूलभद्र ने अपनी आत्मबलवत्ता से | धर्म के समान कामस्थली रूपी उस चित्रशाला में प्रवेश किया। इसके बाद प्रतिदिन वह षट्ररसयुक्त आहार देती । तदनंतर | जब-तब मुनि को अपने व्रत से विचलित करने के लिए सोलह शृंगार से सजधजकर वह मुनि के सामने बैठती; उस | समय वह ऐसी लगती थी, मानो उत्कृष्ट अप्सरा हो। इस तरह मुनि को आकृष्ट करने के लिए वह बार-बार कुशलतापूर्वक नृत्य, गीत, हावभाव, कटाक्ष आदि करने लगी । करण, आसन पूर्वोपभुक्त शृंगार-क्रीड़ा, प्रबल सुरत| क्रीड़ा आदि का भी बार-बार स्मरण कराने लगी । मतलब यह है कि महामुनि को विचलित करने के लिए एक से एक बढ़कर, जितने भी कामोत्तेजक उपाय हो सकते थे, कोशा ने वे सभी आजमाएँ। लेकिन वे सभी उपाय वज्र पर नख से विलेखन के समान निष्फल हुए। इस तरह प्रतिदिन मुनि को विक्षुब्ध करने के लिए वह प्रयत्न करती थी । परंतु वे | जरा भी विचलित न हुए। बल्कि महामुनि पर उपसर्ग-प्रहार करने वाली कोशा ने ज्यों-ज्यों अनुकूल उपसर्ग किये, त्यों-त्यों महामुनि की ध्यानाग्नि अधिकाधिक प्रज्ज्वलित होने लगी; जैसे मेघजल से बिजली विशेष प्रदीप्त हो उठती | है। आखिरकार कोशा वेश्या हार गयी। उसने अपनी भूल स्वीकार की और नतमस्तक होकर कहने लगी- स्वामिन्! में | अपनी नासमझी के कारण पहले की तरह आपके साथ कामक्रीड़ा की अपेक्षा रखती थी; लेकिन आप तो चट्टान की | तरह अडोल रहे । धिक्कार है मुझे ! इस प्रकार पश्चात्ताप करती हुई वह मुनि के चरणों में झुक गयी। मुनि के इंद्रिय - विजय की पराकाष्ठा से प्रभावित होकर कोशा ने श्रावकधर्म ग्रहण किया और इस प्रकार का अभिग्रह किया कि - यदि कदाचित्
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