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वररुचि की मृत्यु - स्थूलभद्र कोशा के वहां चातुर्मास
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३१ सोचविचार करके ही आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँगा। राजा ने कहा-आज ही विचारकर लो। इस प्रकार कहने पर स्थूलभद्र ने अशोकवन में जाकर सोचा-राजसेवक दरिद्र के समान समय पर शयन, भोजन, स्नान आदि सुखसाधनों का उपभोग नहीं कर सकता। भरे हुए घड़े में जैसे और पानी की गुंजाइश नहीं रहती, वैसे ही स्वराष्ट्र की चिंता में व्यग्र राजसेवक के चित्त में प्राणवल्लभ के लिए भी जरा भी गुंजाइश नहीं रहती। अपने तमाम निजी स्वार्थों को तिलांजलि देकर वह एकमात्र राजा की सेवा करता है, फिर भी बांधे हुए पशु को जैसे कौएँ नोंच-नोंचकर हैरान करते हैं, वैसे ही दुष्ट लोग उसे हेरान करते रहते हैं। वह बुद्धिमान जितना अपने शरीर और धन को निचोड़कर राजा की सेवा के लिए जी तोड़ पुरुषार्थ करता है, क्या उतना ही पुरुषार्थ अपनी आत्मा के लिए नहीं कर सकता? यों विचार करते-करते स्थूलभद्र को संसार से विरक्ति हो गयी। उन्होंने स्वयं पंचमुष्टि केश-लोच किया और रत्नकंबल की दशियों का रजोहरण बनाकर साधुवेष पहनकर तत्काल वह महासत्त्वशाली राजसभा में प्रविष्ट हुआ। राजा से उन्होंने निवेदन किया-मैने इस स्थिति में रहने का विचारकर लिया है और आपको धर्मलाभ हो। यो आशीर्वाद सूचक वचन कहकर वह महासत्त्वशाली राज्यसभा से इसी प्रकार बाहर निकल गये, जिस प्रकार केसरीसिंह गुफा से बाहर निकलता है। राजा ने गवाक्ष में बैठे-बैठे स्थूलभद्र को जाते हुए देखा कि कहीं यह वैराग्य होने का बहाना कर वेश्या के यहां तो नहीं जाता? परंतु जब राजा ने यह जान लिया कि वह वेश्यागृह को उसी तरह छोड़कर जा रहा है, जैसे दुर्गन्धपूर्ण लाश को देखते ही आदमी नाक-भौं सिकोड़कर चला जाता है। राजा ने सिर हिलाया और विचार किया कि निश्चय ही भगवान् वैरागी बने हैं। मैंने इनके विषय में गलत अनुमान लगाया। इस तरह अपनी आत्म-निन्दा करते हुए स्थूलभद्र का अभिनंदन किया। श्रीस्थूलभद्र ने भी आचार्य श्रीसंभूतिविजय के पास जाकर सामायिक-पाठ का उच्चारण करके दीक्षा अंगीकार की। इसके बाद नंदराजा ने श्रीयक के हाथ में गौरव-पूर्वक समग्र राज्य-व्यवस्था के कार्यभार की मंत्री-मुद्रा दी और मंत्री के सारे अधिकार उसे सौंप दिये। श्रीयक भी सदा श्रेष्ठ न्याय और कुशलता से राज्य-व्यवस्था में सावधानी रखता था, मानो साक्षात् शकटाल ही हो। वह विनयपूर्वक कोशा के यहां जाता था। भाई के स्नेह-संबंधवश उसकी प्रिया का भी कलीन पुरुष सत्कार करते हैं। स्थलभद्र के वियोग से दःखित कोशा भी श्रीयक को देखकर जोर-जोर से रोने लगी। ईष्ट को देखकर दुःखी पुरुष दुःख से अधीर हो जाते हैं। वे अपने हृदय में दुःख को अधिक देर तक टिकाए नहीं रख सकते। इसके बाद श्रीयक ने कोशा से कहा-आर्ये! बताओ हम इसमें क्या कर सकते हैं? पापी वररुचि ने ही मेरे पिता की हत्या करवायी। अकाल में उत्पन्न वज्राग्नि के समान स्थूलभद्र का अकारण वियोग भी उसने ही कराया है। अतः मनस्विन! जब तक वररुचि की तुम्हारी बहन उपकोशा में आसक्ति है; तब तक उसका प्रतिकार करने का कोई विचारकर लो। उपकोशा को गुप्त रूप से समझाकर किसी भी बहाने से वररुचि में शराब पीने की आदत डाल दो। अपने स्नेही के वियोग में वैर का बदला लेने के लिए देवर के चातुर्य से उसने ऐसा करना मंजूर किया और धीरे-धीरे उपकोशा को सारी बातें चुपचाप समझा दी। कोशा की सलाह से उसकी छोटी बहन उपकोशा ने उसी तरह किया। वररुचि को जबरन शराब पीने को बाध्य कर दिया। स्त्री अपने गुलाम बने हुए पुरुष से क्या नहीं करा सकती है? वररुचि ब्राह्मण को अपनी इच्छानुसार मदिरापान करवाकर प्रातःकाल उपकोशा ने अपनी बहन कोशा के पास जाकर सारी बातें कही। कोशा ने श्रीयक को सारी बातें बतला दी। उसे सुनकर श्रीयक ने सोचा कि 'आज पिता के वैर का बदला मैंने अच्छी तरह ले लिया।' महामंत्री शकटाल की मृत्यु के बाद वररुचि राजा की सेवा में तत्पर रहता था। वह सदा राजकुल के प्रत्येक कार्य में उपस्थित रहता था। अतः राजा और प्रजाजन उसे सम्मान पूर्वक देखते थे। एक समय नंदराजा ने शकटाल मंत्री के गुणों का स्मरण करते हुए उदासीन-से बने हुए राजसभा में गद्-गद् स्वर से श्रीयक से कहा-इंद्र की सभा में जैसे बृहस्पति है, वैसे ही मेरी सेवा में शक्ति-शक्तिमान महाबुद्धिशाली महामंत्री शकटाल था। परंतु दैवयोग से वह इस प्रकार चल बसा। सचमुच, उसके बिना मुझे यह राजसभा सूनी-सूनी-सी लगती है। श्रीयक ने भी कहा-देव! आपकी बात बिलकुल सत्य है। परंतु इस विषय में हम क्या कर सकते हैं? यह सब करतूत मद्यपानरत पापी वररुचि भट्ट की है। राजा ने पूछा-क्या यह मदिरापान भी करता है? श्रीयक ने कहा-देव! कल ही मैं आपको प्रत्यक्ष बता दूंगा। इस कौतुक को देखने के लिए दूसरे दिन राजसभा में सभी पुरुष आये। राजा सहित सभी सभासदों को सुंदर पद्म कमल अर्पण किया।
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