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स्थूलभद्र को संसार से विरक्ति और उपकोशा द्वारा धर्मभ्रष्ट वररुचि मृत्यु के लिए बध्य योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३१ के अंदर द्रव्य डाल देता है और सुबह स्तुति का ढोंग रचकर इसे ग्रहण करता है। राजा ने कहा-तुमने इसके इस प्रपंच का मेरे सामने भंडाफोड़कर बहुत अच्छा किया। यों कहकर राजा विस्मित नेत्रों से वररुचि को देखता हुआ अपने महल में पहुंच गया।
शकटाल मंत्री के इस रवैये से वररुचि मन ही मन बहुत क्रद्ध हो गया और इस अपमान का बदला लेने की ठानी। एक दिन वररुचि ने मंत्री के घर की किसी दासी को प्रलोभन देकर उससे उसके घर की सारी बातें पूछी। मंत्री की दासी ने बताया कि मंत्री पुत्र श्रीयक के विवाह की तैयारी हो रही है। उसमें राजा को भी भोजन का आमंत्रण दिया गया है। नंदराजा को उस समय नजराना देने के लिए शस्त्र भी तैयार किये जा रहे हैं। क्योंकि शस्त्रप्रिय राजा को शस्त्र ही भेंट दिये जाते हैं। मंत्री के छिद्र को जानकर वररुचि ने बालकों को इकट्ठे किये और खाने को चने देकर, यह सिखाया कि 'देखो, तुम लोग जगह-जगह लोगों के सामने इस तरह कहो-राजा को इस बात का पता नहीं है कि शकटाल मंत्री राजा को मारकर श्रीयक को राजगद्दी पर बिठाना चाहता है। बच्चे रोजाना जगह-जगह यह बात लोगों के सामने कहने लगे। धीरे-धीरे लोगों ने यह बात राजा से जाकर कही। राजा ने सोचा-बालक जो बोलते हैं, श्रेष्ठ नारियां जो कहती है तथा औत्पातिक भाषा में जो बोला जाता है, वह कभी मिथ्या (निष्फल) नहीं होता। अतः राजा ने इस बात का निर्णय करने के लिए अपने एक विश्वस्त पुरुष को शकटाल मंत्री के यहां पता लगाने भेजा। उसने मंत्री के घर में सारी खोजबीन करके पता लगाया और वहां जो कुछ देखा था, हूबहू आकर राजा से कह सुनाया। सेवा (राजकार्य) के समय जब मंत्री ने राजा के सामने उपस्थित होकर नमस्कार किया, तो राजा अपना मुंह फिराकर बैठा। मंत्री राजा के भाव को फौरन ताड़ गया। उसने घर आकर श्रीयक से कहा-मालूम होता है, किसी द्वेषी ने अपने लिए राजा को उलटा समझाकर भड़का दिया है। इसी कारण राजा हम पर कुपित हो गया है। अतः अब वह अवश्य ही अपने कुल को नेस्तनाबूद करेगा। इसलिए वत्स! यदि तूं मेरी आज्ञा के अनुसार करना स्वीकारकर लेगा तो हमारे कुल की रक्षा हो जायगी। वह आज्ञा यह है कि जब मैं राजा को नमस्कार करने के लिए सिर झुकाऊं, तब फौरन ही तलवार से तुम मेरा सिर उड़ा देना। और यों कहना कि चाहे पिता ही क्यों न हो, अगर वह स्वामिभक्त नहीं है तो उसका वधकर डालना ही उचित है। बेटा! मैं बुढ़ा हो चला हूं, दो-चार साल जीया; न जीया इस तरह से मरूंगा तो कुलगृह के स्तंभ-समान तूं तो कम से कम चिरकाल तक मौज करेगा। यह सुनकर श्रीयक गद्गद् कंठ से रोता हुआ बोला-तात! ऐसा घोर-पाप-कर्म तो चांडाल भी नहीं करता; मुझ से यह कैसे होगा? तब मंत्रीश्वर ने कहा-अगर तूं ऐसा विचार करेगा तो केवल दुश्मनों का ही मनोरथ पूर्ण करेगा और यमराज-सा कोपायमान राजा हमें कुटुंब सहित मार डालेगा। अतः मेरे एक के नाश से अगर सारे कुटुंब की रक्षा होती हो तो मुझे इसका जरा भी रंज नहीं होगा। रही तेरे धर्म की रक्षा की बात; सो मैं| पहले से ही अपने मुंह में तालपुट विष रखकर राजा को नमस्कार करूंगा; अतः तूं मुझ
तं मुझ मत के मस्तक को काट देना. जिससे तुझे पितृहत्या का पाप नहीं लगेगा। इस तरह बहुतेरा समझाने पर बड़ी मुश्किल से श्रीयक ने बात स्वीकार की;
क्योंकि 'बुद्धिशाली व्यक्ति भविष्य के शुभ के लिए वर्तमान समय को भयंकर बना देते है।' पिता की आज्ञा मानकर |श्रीयक ने राजसभा में राजा के सामने ही पिता का मस्तक काट डाला। राजा यह देखकर हक्का-बक्का-सा होकर श्रीयक | से पूछने लगा 'वत्स! ऐसा दुष्कर अकार्य तुमने क्यों किया? श्रीयक ने कहा-आपने देखा कि मेरे पिता राजद्रोही है; अतः मैंने उसे मारा है। सेवक सदा स्वामी के मनोऽनुकूल ही व्यवहार करते हैं। यदि स्वयं को दोष दीखे तो विचारणीय होता है; परंतु स्वामी को अगर किसी सेवक में दोष दिखायी दे तो उसका तुरंत प्रतिकार करना ही उचित है; वहां कोई विचार करना उचित नहीं।
महामंत्री शकटाल की मरणोत्तर क्रिया करने के बाद नंदराजा ने श्रीयक को बुलाकर कहा-यह समस्त राज्यव्यवस्था कार्यभार तुम संभालो और यह लो मंत्री-मुद्रा। इस पर श्रीयक ने राजा को प्रणाम करके कहा-देव! पिता के समान मेरा बड़ा भाई स्थूलभद्र मौजूद है, जो मेरे पिता की कृपा से आनंदपूर्वक कोशा-गणिका के यहां बारह वर्ष से सुखभोग पूर्वक जीवन बिता रहा है। वही इस राज्य के मंत्रित्व का प्रथम अधिकारी है। यह बात सुनकर राजा ने स्थूलभद्र को बुलाया और उसे मंत्री-मुद्रा स्वीकार करने को कहा। तब स्थूलभद्र ने कहा-मैं पहले इस पर भलीभांति
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