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स्थूलभद्रमुनि का दृष्टांत
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३० से १३१
इस प्रकार १२९ वे श्लोक का भावार्थ पूर्ण हुआ
।३०१। न्याय्ये काले ततो, देव - गुरु- स्मृति - पवित्रितः । निद्रामल्पामुपासीत, प्रायेणाब्रह्मवर्जकः ॥१३०॥
अर्थ :- स्वाध्याय आदि करने के बाद उचित समय तक देव एवं गुरु के स्मरण से पवित्र बना हुआ एवं प्रायः अब्रह्मचर्य का त्यागी या नियमित जीवन बिताने वाला श्रावक अल्पनिद्रा ले ।।१३० ।।
व्याख्या :- • रात्रि के प्रथम प्रहर तक या आधी रात तक अथवा शरीर स्वस्थता के अनुसार, स्वाध्यायादि करने | के बाद श्रावक अल्पनिद्रा का सेवन किस प्रकार करे ? इसे बताते हैं- भट्टारक श्री अरिहंतादि देव, धर्माचार्य, गुरुमहाराज का मन में स्मरण कर पवित्र बना हुआ आत्मा, उपलक्षण से चार शरण अंगीकार करके, पापमय कृत्यों की निंदा और | सुकृत्यों की अनुमोदना कर पंच परमेष्ठी भगवंतों का स्मरण इत्यादि करे। इन सभी के स्मरण किये बिना आत्मा पवित्र | नहीं बन सकता। इसलिए श्री वीतरागदेव का स्मरण इस प्रकार करे - नमो वीयरागाणं सव्वण्णूणं तिलोक्कपूइआणं जहद्विअवत्थु वाईणं अर्थात् नमस्कार हो श्री वितराग सर्वज्ञ त्रिलोक पूज्य यथार्थ रूप से वस्तु तत्त्व के प्रतिपादक श्री | अरिहंत परमात्मा को । इसके बाद गुरुदेवो का स्मरण इस प्रकार करे-धन्यास्ते ग्राम-नगर- जनपदादयो येषु मदीया | धर्माचार्या विहरन्ति अर्थात् उस गांव, नगर, देश, प्रांत आदि को धन्य है, जहां मेरे धर्माचार्य गुरुदेव विचरण कर रहे हैं। शयन से पूर्व और निद्रा त्याग के पश्चात् इस प्रकार से चिंतन करे । अल्पनिद्रा में निद्रा विशेष्य है और अल्प विशेषण है। यहां पर अल्प का विधान किया है; निद्रा का नहीं। क्योंकि जिस वाक्य में विशेषण सहित विधि-निषेध होता है, | उसका विधान. विशेषण परक होता है, विशेष्यकारक नहीं, इस न्याय से यहां 'निद्रा लेना' विधान नहीं है । निद्रा तो | दर्शनावरणीय कर्म के उदय से अपने आप आती है। नहीं बताये हुए पदार्थ में ही शास्त्र की सफलता मानी जाती है; यह बात पहले कही जा चुकी है। इसलिए यहां निद्रा में अल्पत्व का विधान किया गया ।।१३० ।। और गृहस्थ प्रायः अब्रह्मचर्य = मैथुनसेवन का त्याग करता ही है। और भी देखिए -
। ३०२ । निद्राच्छेदे योषिदङ्गसतत्त्वं परिचिन्तयेत् । स्थूलभद्रादिसाधूनां तन्निवृत्तिं परामृशन् ॥१३१॥
अर्थ :- रात को जब नींद खुल जाय, तब स्थूलभद्रादि मुनियों ने जिस प्रकार स्त्रियों के अंग की मलिनता, जुगुप्सनीयता और निःसारता का विचार किया था, उसी प्रकार अंगनाओं के अंगों के यथार्थ तत्त्व का चिंतन करे और उनकी तरह स्त्रियों से निवृत्ति का स्मरण करते हुए अपने शरीर के वास्तविक स्वरूप पर विचार करे || १३१ । ।
श्री स्थूलभद्रमुनि का संप्रदायपरंपरागम्य चरित्र इस प्रकार है
| कामविजेता महामुनि स्थूलभद्र :
चंद्रमा की चांदनी से प्रकाशित रात्रि की आकाशगंगा से प्रतिस्पर्धा करने वाली कमलसंगम से उसके तेज को पराजित कर देने वाली गंगा नदी के तट पर मनोहर पाटलीपुत्र नगर था। वहां कल्याण के स्वामी के तुल्य, | त्रिखंडाधिपति, शत्रुस्कन्धनाशक नंद नाम का राजा राज्य करता था । संकट में श्री का रक्षक, संकट-रहित बुद्धिनिधान शकटाल नाम का उसका सर्वश्रेष्ठ मंत्री था । उसका बड़ा पुत्र प्रखर- बुद्धि-संपन्न, विनयादि-गुणागार, सुंदर, सुडौल एवं | चंद्रवत् आनंददायक स्थूलभद्र था। तथा नंदराजा के हृदय को आनंददायक, गोशीर्षचंदन के समान भक्तिमान श्रीयक | नाम का उसका छोटा पुत्र था। उसी नगर में रूप और कांति में उर्वशी के समान लोकमनोहारिणी कोशानाम की वेश्या | रहती थी । स्थूलभद्र उसके साथ दिनरात विविध भोगविलासों और आमोद प्रमोदों में तन्मय रहता था । उसे वहां रहते | एक - एक करते हुए बारह वर्ष बीत गये । शकटाल- मंत्री का पुत्र श्रीयक नंदराजा के दूसरे हृदय के समान, अत्यंत | विश्वासपात्र और अंगरक्षक बना हुआ था । उसी नगर में कवियों, वादियों और वैयाकरणों में शिरोमणि वररुचि नामक ब्राह्मणों का अगुआ रहता था। वह इतना बुद्धिशाली था कि प्रतिदिन १०८ नये श्लोक बनाकर राजा की स्तुति करता था। | किन्तु वररुचि कवि के मिथ्यादृष्टि होने के कारण शकटाल मंत्री कभी उसकी प्रशंसा नहीं करता था। इस कारण नंदराजा उस पर प्रसन्न तो था, मगर उसे तुष्टिदान नहीं देता था । दान न मिलने का कारण जानकर वररुचि शकटालमंत्री की पत्नी की सेवा करने लगा । वररुचि की सेवा से प्रसन्न होकर एक दिन मंत्री पत्नी ने उससे पूछा- भाई ! कोई कार्य हो
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