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निद्रा लेने के पहले और निद्रात्याग के बाद श्रावक की चर्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १३० पच्चक्खाण स्पर्शनादि गुण वाले होते है और सुप्रत्याख्यान कहलाते हैं। इसी के समर्थन में सभी प्रत्याख्यानों की सम्यक्शुद्धि के हेतु कहा है-फासियं, पालियं, सोहियं, तीरियं, कीट्टियं, आराहियं। इस तरह प्रत्याख्यान की शुद्धि पूर्वोक्त ६ प्रकार से होती है। १. फासियं (स्पर्शित)-प्रत्याख्यान के समय विधि पूर्वक उसका स्पर्श प्राप्त होना; २. पालियं (पालित)=ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान का बार-बार उपयोग पूर्वक स्मरण रखकर उसे भलीभांति सुरक्षित रखना-भंग होने से बचाना या पालना; ३. सोहियं (शोभित) आये हुए आहार में से गुरु, तपस्वी, बाल, ग्लान, वृद्ध आदि को | पहले देकर बचे हुए आहार का स्वयं सेवन करना; ३. तीरियं (तीरित)-प्रत्याख्यान की अवधि पूर्ण हो जाने के बाद थोड़े समय तक स्थिरता करके बाद में आहार करना। ५. कीट्टियं (कीर्तित)-प्रत्याख्यान के अनुरूप करते समय यह याद करके कि मैंने आज अमुक प्रत्याख्यान अंगीकार किया है; भोजन करे अथवा जो प्रत्याख्यान ग्रहण किया है, उसकी महत्ता का बखान करना-कीर्तन करना भी कीर्तित कहलाता है। ६. आराहियं (आराधित)=इन सभी प्रकार की शुद्धि के साथ आगारों को भली भांति मद्दे नजर रखते हुए लिये हुए प्रत्याख्यान को अमल में लाना।
याख्यान के अनंतर और परस्पर दो प्रकार के फल बताते हैं। पच्चक्खाण करने से आने वाले कर्मों के द्वार बंद हो जाते हैं; इससे इच्छा-तृष्णा का उच्छेद होता है। तृष्णा शांत होने से अनुपम उपशमभाव प्रकट होता है; इस कारण से प्रत्याख्यान शुद्ध होता है। शुद्ध प्रत्याख्यान से साधक चारित्रधर्म का यथार्थ स्वरूप प्राप्त करता है। इससे पर्वकत (पराने) कर्मों की निर्जरा होती है. जिससे उत्तरोत्तर गणस्थान की प्राप्ति करते-करते साधक एक दिन केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है; और केवलज्ञान से शाश्वतसुख-स्थान रूप मोक्षफल प्राप्त होता है। इस तरह प्रत्याख्यान परंपरा से मोक्षफल दाता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान-आवश्यक-सहित छह आवश्यकों के स्वरूप का वर्णन पूर्ण हुआ। श्रावक के लिए केवल चैत्यवंदन आदि ही आवश्यक करणीय है, उसे इन षट्-आवश्यकों को करने की आवश्यकता नहीं; ऐसा कदापि प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। इसीलिए कहा है-श्रमण या श्रावक के लिए रात या दिन के अंत में ये (छह) अवश्य करने योग्य कार्य हैं, इसीलिए इनका नाम आवश्यक (प्रतिक्रमण) कहा है। इसी तरह आगम में भी श्रावक को प्रतिक्रमणादि अवश्य करने का कहा है। यहां चैत्यवंदन आदि के समान आवश्यक को बताना उचित नहीं है। क्योंकि प्रतिक्रमणादि आवश्यक का विधान तो अंतो अहो-निसिस्स कहकर दिन और रात के अंत में उभयकाल किया गया है; जबकि चैत्यवंदन का विधान त्रिकाल है। अनुयोगद्वारसूत्र में भी लोकोत्तर आवश्यक का लक्षण बताते हुए इसके महत्त्व के संबंध में कहा है-जो साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका आवश्यकसूत्र और उसके अर्थ में एकाग्रचित रहते हैं, उसमें तन्मय हो जाते हैं, उसी लेश्या में तल्लीन व उसीके अर्थ में उपयोग वाले होकर उसी में ही तीनों करणों को अर्पितकर देते हैं एवं केवल उसी की भावना में ओत-प्रोत होकर दोनो समय आवश्यक (प्रतिक्रमणादि) करते हैं; उनके उस आवश्यक को लोकोत्तर भाव-आवश्यक समझना। इस आगम-वचन के अनुसार श्रावकों के लिए भी आवश्यक (प्रतिक्रमणादि) करने का विधान है। छह आवश्यक करने के बाद श्रावक स्वाध्याय करे अणुव्रत-विधि पर विचार करे अथवा पंचपरमेष्ठीनमस्कारमंत्र की माला फेरे अथवा पांच प्रकार का स्वाध्याय करके समय का सदुपयोग करे। स्वाध्याय के पांच प्रकार ये हैं-१. वाचनाशास्त्र या ग्रंथ पढ़ना, २. पृच्छना-उसके विषय में प्रश्न पूछना, ३. पर्यटना पढ़ा हुआ ज्ञान विस्मृत न हो जाय, इस दृष्टि से बार-बार उसे दोहराना-आवृत्ति करना, ४. अनुप्रेक्षा सूक्ष्मपदार्थों के संबंध में परस्पर चर्चा करके निःशंक बनना अथवा तदनुकूल चिन्तन-मनन करना, ५. धर्मकथा शास्त्रीय विषयों पर धर्म-कथा या व्याख्यान अथवा प्रवचन करना, सुनना।
यदि साधु-साध्वियों के उपाश्रय में व्याख्यान-उपदेश सुनने जाने की शक्ति न हो अथवा कोई राजा या महाऋद्धिमान श्रावक हो, या बाहर जाने में अड़चन या कठिनाई हो तो वह अपने घर में ही आवश्यक, स्वाध्याय आदि करे। यह उत्तमनिर्जराहेतुम् - उत्तम निर्जरा का कारण रूप है। कहा भी है कि 'श्रीजिनेश्वर' ने बाह्य और आभ्यंतर रूप से बारह प्रकार के तप बताये हैं, उनमें स्वाध्याय के समान कोई तप नहीं है, न होगा, न हुआ है। (पंच. व. ५६२) और भी कहा कि 'स्वाध्याय से ध्यान होता है और स्वाध्याय से परमार्थ भी जाना जा सकता है; स्वाध्याय में तन्मय बना हुआ आत्मा क्षण-क्षण में वैराग्य प्राप्त करता है (उपदेश माला ३३८) ।।१२९।।
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