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समस्त पच्चक्खाणों के आगारों की गणना एवं प्रत्याख्यानशुद्धि की विधि
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ तक का पच्चक्खाण अलग-अलग भी लिया जा सकता है और एक साथ सभी विग्गइयों का पच्चक्खाण भी नीवी पच्चक्खाण के साथ लिया जा सकता है। इसमें जो आगार है, उनका अर्थ पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। विशेष आगार ये हैं-गिहत्थ-संसद्वेणं-अर्थात् गृहस्थ ने अपने लिये दूध में चावल मिलाये हों, उस दूध में चावल डालने के बाद अगर वह दूध (उस बर्तन में) चार अंगुल ऊपर हो तो वह विग्गई नहीं माना जायगा। वह संसृष्टद्रव्य है और नीवी पच्चक्खाण में ग्राह्य है, किन्तु यदि दूध चार अंगुल से ज्यादा ऊपर हो तो वह विग्गई में शुमार है। इसी तरह दूसरी | विग्गइयों में भी संसृष्टद्रव्य का आगार आगमों से जान लेना। मतलब यह है कि गृहस्थ द्वारा संसृष्ट द्रव्य साधु-साध्वी
नीवी में खा ले तो उनका पच्चक्खाण इस आगार के कारण भंग नहीं होता। उक्तित्तविवेगेणं-अर्थात् | आयंबिल से आगारों में कहे अनुसार सख्त द्रव्य आदि का त्याग होते हुए भी कदाचित् गुड़ आदि किसी कठिन द्रव्य |
का कण रह जाय और वह खाने में आ जाय तो भी उक्त पच्चक्खाण का भंग नहीं होता। किन्तु यह आगार (छूट) | सिर्फ कठोर (सख्त) विग्गई के लिए है, तरल विग्गई के लिए नहीं। पडुच्चमक्खिएणं-रूखी रोटी आदि नरम रखने के लिए अल्पमात्रा में गहस्थ द्वारा उसे चपड दी जाती हो. उसे खा लेने पर भी 'प्रतीत्यप्रक्षित' नामक आगार के यह पच्चक्खाण भंग नहीं होता; बशर्ते कि उसे खाने पर घी का स्वाद जरा भी मालूम न हो। अंगुली में लगे हुए मामूली तेल, घी आदि रोटी आदि के लग जाय, उसे खाने पर भी यह पच्चक्खाण भंग नहीं होता। परंतु विशेष रूप से घी आदि डालकर खाना उक्त धारविग्गई के पच्चक्खाण वाले के लिए कल्पनीय नहीं है। इस प्रकार विग्गई-त्याग और उपलक्षण से नीवी-पच्चक्खाण के जो आगार बताये हैं, उनकी यतना रखकर, बाकी का वोसिरइ-त्याग करता हूं। त्याग की हुई किसी विग्गई में गुड़ का टुकड़ा रखा हो तो उसे उठाकर वह विग्गई ली जा सकती है। इस दृष्टि से गुड़ विग्गई के नौ और दूध आदि तरल विग्गई के आठ-आठ आगार समझ लेने चाहिए।
आगारों का दिग्दर्शन कराने वाली इसी बात की पोषक आगमगाथाओं का अर्थ यहां प्रस्तुत करते हैंनमुक्कारसहिय (नौकारसी) पच्चक्खाण के दो, पोरसी के ६, पुरिमत (पूर्वार्द्ध) पच्चक्खाण के सात, एकासन के ८, उपवास के ५, पानी सहित उपवासादि के ६, दिवसचरम और भवचरम प्रत्याख्यान के ४, अभिग्रह के ४ अथवा अन्य चार तथा नीवी के ८ या ९ आगार होते हैं। इनमें भी अप्रावरण अभिग्रह में पांच और शेष अभिग्रह पच्चक्खाण में चार आगार होते हैं। (आ. नि. १६१२-१६१४) यहां शंका होती है कि नीवी के लिए कहे हुए आगार विग्गई-त्याग रूप पच्चक्खाण के अंतर्गत बताये है तो कोई तमाम विग्गइयों का त्याग न करके कुछ विग्गइयों की छुट रखता है, किसी या किन्हीं विग्गइयों का ही त्याग करता है; ऐसे विग्गई-पच्चक्खाण में आगार किस तरह समझने चाहिए? इसका समाधान यह है कि नीवीपच्चक्खाण के साथ ही उपलक्षण से परिमित-विग्गई-पच्चक्खाण का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। उसमें भी वे ही आगार समझने चाहिए। अर्थात् नीवी में जो आगार बताये है, वे ही आगार (परिमित) विग्गईपच्चक्खाण में भी है। इसी प्रकार एकासन के साथ बियासणा तथा पोरसी के साथ साढपोरसी और पुरिमड्ड के साथ अवड्ड का पच्चक्खाण समझ लेना चाहिए। अप्रमत्तता की वृद्धि होने से उस पच्चक्खाण के साथ बोलना अनुचित नहीं है। एकासनादि-संबंधी आगार एक सरीखे होने से बियासना में पोरसी, साड्ढपोरसी आदि में समझ लेना। क्योंकि चउव्विहार में जो आगार है, वे ही तिविहार, दुविहार पच्चक्खाण के आगार है, उसी तरह बिआसणा आदि व एकासन | आदि के आगार आसनादि शब्द की समानता से युक्त है। यहां शंका होती है कि बियासणा आदि पच्चक्खाण यदि अभिग्रह रूप है, तो उसके चार आगार होने चाहिए, अधिक क्यों? इसका समाधान यों करते हैं कि एकासन आदि के समान ही उसका ग्रहण, पालन, रक्षण आदि होने से उनके साथ समानता है। इसलिए बियासन में भी उतने ही आगार जानने चाहिए। अन्य आचार्यों की मान्यता है कि बियासन आदि के पच्चक्खाण मूल पच्चक्खाणों में नहीं गिनाये गये हैं। मूल में एकासना आदि दस पच्चक्खाण ही माने गये हैं, अतः इतने ही ठीक है। यदि कोई एकासन आदि पच्चक्खाण करने में असमर्थ हो, तो वह अपनी भावना और शक्ति के अनुसार पोरसी आदि उक्तपच्चक्खाण कर सकता है। इससे भी अधिक लाभ-प्राप्ति के अभिलाषी को उस (पोरसी आदि) के साथ गंठिसहित, मुट्ठिसहित आदि प्रत्याख्यान करना उचित है। क्योंकि गंठिसहित आदि पच्चक्खाण भी अप्रमत्तदशा को बढ़ाने वाले और फलदायी है। ये
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