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पानी, चरम एवं अभिग्रह पच्चक्खाण का स्वरूप
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ उपवास किया हो, वह तो आहार-पानी दोनों बढ़ गये हों, तभी खा सकता है पानी न बढ़ा हो तो अकेला आहार नहीं खा सकता। वोसिरइ उपर्युक्त आगारों के अतिरिक्त अशनादि चारों या तीनों अशनादि आहार का त्याग करता है। ___ अब पानी-संबंधी पच्चक्खाण कहते हैं, उसमें पोरसी, पुरिमड्ड, एकासना, एकलठाणा, आयंबिल तथा उपवास के पच्चक्खाण में उत्सर्गमार्ग में चौविहार पच्चक्खान करना युक्त है, फिर भी तिविहार पच्चक्खाण किया जाय और पानी की छूट रखी जाय, तो उसके लिए छह आगार बताये हैं। वे इस प्रकार है
पाणस्स लेयेण या, अलेवेण या अच्छेण वा बहुलेवण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा योसिरह। पोरसी आदि के आगारों में अण्णत्थणाभोगेणं आगार के साथ इसे जोड़ना और जो तृतीया विभक्ति है उसे पंचमी
समझना। तथा लेवेण वा ओसामण अथवा खजर. इमली आदि के पानी से या जिस बर्तन आदि में उसके लेपसहित पानी हो, उसके सिवाय त्रिविध आहार का मैं त्याग करता हूं। अर्थात् जिस लेपकृत पानी उपवास अथवा एकासन आदि में भोजन के बाद पीये तो भी पच्चक्खाण का भंग नहीं होता है। प्रत्येक शब्द के साथ अथवा अर्थ में वा शब्द (अव्यय) है। वह लेपकृत-अलेपकृत आदि सर्व प्रकार के पानी पाणस्स=पानी के पच्चक्खाण में अवर्जनीय रूप में विशेष प्रकार से बताने के लिए समझना, वह इस प्रकार से अलेवेण वा जिस बर्तन आदि में लेप न हो, परंतु छाछ आदि का नितारा हुआ पानी हो, उसे अलेपयुक्त पानी के पीने से भी इस आगार के कारण पच्चक्खाण भंग नहीं होता है। तथा अच्छेण वा तीन बार उबाले हुए पानी शुद्ध स्वच्छ जल से बहुलेण वा तिल या कच्चे चावल का धोवन, बहुल जल अथवा गुडल जल कहलाता है। उससे तथा ससित्थेण वा पकाये हुए चावल या मांड, दाना अथवा ओसामन वाले पानी को कपड़े से छानकर पीये तो, इस आगार से पच्चक्खाण का भंग नहीं होता है, तथा असित्थेण वा=आटे के कण का नितारा हुआ पानी भी इसी प्रकार के पानी के आगार के समान समझना। ____ अब चरम प्रत्याख्यान के संबंध में कहते हैं-चरम अर्थात् अंतिम पच्चक्खाण। इसके दो भेद हैं-एक दिन के | अंतिम भाग का और दूसरा भव-जीवन के अंतिम भाग तक का होता है, इन दोनों पच्चक्खाणो को क्रमशः दिवसचरिम और भवचरिम कहते हैं। भवचरिम प्रत्याख्याण यावज्जीव-जब तक प्राण रहे, तब तक का होता है। दोनों के चारचार आगार है; जिन्हें निम्नोक्त सूत्रपाठ में बताये हैं__दिवसचरिमं, भवचरिमं या पच्चक्वाइ; चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अण्णत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्यसमाहियत्तिआगारेणं योसिरह।
यहां शंका करते हैं कि एकासन आदि पच्चक्खाण भी इसी तरह से होता है, फिर दिवसचरिम पच्चक्खाण की क्या आवश्यकता है? अतः दिवसचरिम पच्चक्खाण निष्फल है। इसका समाधान करते हैं कि यह कहना यथार्थ नहीं है। एकासन आदि में अण्णत्थणाभोगेणं इत्यादि आठ आगार है, जबकि दिवसचरिम में केवल चार ही आगार है। अतः इसमें आगार (अपवाद छूट) कम होने से यह पच्चक्खाण सफल ही है। यद्यपि साधुसाध्वियों के रात्रिभोजन का त्रिविध-त्रिविध (तीनकरण तीन योग) से आजीवन त्याग होता है और गृहस्थ के एकासन आदि का पच्चक्खाण भी दूसरे दिन सूर्योदय तक का होता है; (क्योंकि दिवस-शब्द का अर्थ दिन होता है, वैसे ही पूरी रात्रिसहित दिन यानी 'अहोरात्र' भी होता है। अर्थात् अहोरात्र शब्द भी दिवस का पर्यायवाची (समानार्थक) होता है।) तथापि जिनके रात्रिभोजन का त्याग हो, उन साधु-श्रावकों को फिर से रात्रिभोजनत्याग रूप दिवसचरम प्रत्याख्यान पुनः उस पच्चक्खाण का स्मरण (याद) करा देता है, इसलिए सफल है। भवचरिमपच्चखाण में सिर्फ दो आगार ही होते हैं। इसमें सर्वसमाधि-प्रत्यय रूप आगार और महत्तरागार की जरूरत नहीं रहती; सिर्फ अनाभोग और सहसाकार इन दो आगारों से भवचरिम-पच्चक्खाण हो जाता है। उपयोगशून्यता अथवा सहसा अंगुली आदि मुंह में डालना संभव होने से इस प्रत्याख्यान में ये दो आगार ही रखे गये हैं। क्योंकि चरम-प्रत्याख्यानकर्ता इन दोनों आगारों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता।
अब अभिग्रह प्रत्याख्यान का स्वरूप बताते है। किसी न किसी रूप में तप त्याग के अनुरूप कोई संकल्प या नियम करना, अभिग्रह कहलाता है। वह दंड का प्रमार्जन-प्रतिलेखन करने. उठने देने आदि विविध नियमों के रूप में होता
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