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आयंबिल और अभत्तह (उपवास) पच्चक्खाण के पाठ और विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ हो जाते। अब आयंबिल पच्चक्खाण का स्वरूप बताते हैं। इसमें आठ आगार है। आयंबिल पच्चक्खाण का सूत्र पाठ इस प्रकार है
आयंबिलं पच्चक्खाइ, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागरेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसट्टेणं, उक्खितवियेगेणं, पारिट्ठायणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्यसमाहियत्तिआगारेणं योसिरइ।
आयंबिल जैन धर्म का पारिभाषिक शब्द है। शब्दशः इसका अर्थ होता है-आयं यानी आयाम ओसामण और अम्ल-चौथा खट्टा पानी या खटाई; उपलक्षण से तमाम विगई, मिर्च-मसाले आदि स्वादवर्द्धक या स्निग्ध वस्तुओं के असेवन का नियम ग्रहण कर लेना चाहिए। जिसमें प्रायः नीरस (स्वाद रहित), रूखी-सूखी खाद्यवस्तुओं-चावल, गेहूं, चने, उड़द आदि का भोजन (एक बार) करके निर्वाह किया जाय, उसे जैनशासन में आयंबिल या आचाम्ल तप कहते हैं। तात्पर्य यह है कि आयंबिल-पच्चक्खाण में स्वाद जीतने के लिए पौष्टिक, सरस, स्वादिष्ट, चटपटी गरिष्ठ आदि वस्तुओं से रहित रूखा-सूखा, नीरस भोजन करना होता है। इसमें प्रथम दो आगारों और अंतिम तीन आगारों की व्याख्या पहले की जा चुकी है। बीच के तीन आगारों की व्याख्या इस प्रकार हैलेवालेवेणं-लेप और अलेप से। अर्थात् आयंबिल करने वाले के लिए अकल्पनीय (असेवनीय) घी, तेल, गुड़ (मीठा), दूध, दही, मिर्च-मसाले, हरे साग, सूखे मेवे, पके फल आदि वस्तुओं का लेप आयंबिल के योग्य रूखे-सूखे भोजन या बर्तन के साथ पहले से लगा हो तो उसका आगार है; अथवा भोजन व बर्तन के लेप तो न लगा हो, लेकिन तेल आदि अकल्पनीय वस्तुओं से लिप्त हाथ या कपड़े से साफ किये हुए या पोंछे हुए बर्तन में भोजन किया गया हो, तो वह अलेप का आगार है। मतलब यह कि लेप और अलेप के आगार के कारण पच्चक्खाण भंग नहीं होता। तथा गिहत्थसंसटेणं आहार देने वाला गृहस्थ जिस चमचे या कुड़छी आदि से साधु के पात्र में भोजन देता है, उसके साथ प्रत्याख्यान में अकल्प कोई विगई या मिर्च-मसाले आदि वस्तु लगी हो अथवा आयंबिल करते समय कुड़छी आदि में लगी उस अकल्प्य वस्तु का अंशमात्र मिला हो, आयंबिलयोग्य आहार में उस वस्तु का स्वाद भी स्पष्ट रूप से मालूम होता हो, फिर भी ऐसी लेपायमान वस्तु के खाने पर इस आगार के कारण आयंबिल पच्चक्खाण का भंग नहीं होता। तथा उक्खितविवेगेणं आयंबिल में खाने योग्य रूखी रोटी, चने, चावल आदि वस्तु पर आयंबिल में नहीं खाने योग्य सूखी विगई (गुड़, मिठाई आदि) रखी हो, उसे अच्छी तरह उठा लेने के बाद भी उसका अंश अथवा लेप रोटी, चावल आदि पर लगा हो तो आयंबिल में खाने से इस आगार के कारण पच्चक्खाण भंग नहीं होता है। अर्थात् आयंबिल में कल्प्य (खाने योग्य वस्तु) में अकल्प्य वस्तु का स्पर्श हो गया हो तो आयंबिल भंग नहीं होता। परंतु हलवा, साग आदि वस्तु को पूर्णरूप से उठा नहीं सकते; अतः वह (विगई आदि) कल्प्य खाद्य के रूप लगी रह जाती है; इससे रूखी रोटी चावल आदि खाने पर व्रतभंग होता है। इस तरह इन आगारों (छूटों) के अतिरिक्त आयंबिल में नहीं खा सकने योग्य अन्य चारों आहारों का त्याग करता हूं। शेष पदों का अर्थ पहले आ चुका है।
अब उपवास के पच्चक्खाण का वर्णन करते हैं। इसके पांच आगार है। यहां प्रथम उपवास-पच्चक्खाण का सूत्र पाठ कहते हैं
सूरे उग्गए अब्मत्तटुं पच्चक्खाइ चव्यिहंपि, तिविहंपि या आहारं असणं, पाणं, खाइमं, खाइमं अण्णत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पारिट्ठावणिआगारेणं, महत्तरागारेणं सव्यसमाहियत्तिआगारेणं योसिरह।
सूरे उग्गए सूर्योदय से लेकर। इसका यह अर्थ हुआ कि भोजन करने के बाद शेष दिन के समय में उपवास नहीं हो सकता है। तथा अब्भत्तट्ठ अर्थात् जिस प्रत्याख्यान में भोजन करने का प्रयोजन नहीं हो, उसे अभक्तार्थ (उपवास) कहते हैं। इसके आगार पूर्ववत् है। इसमें पारिट्ठवणिआगार विशेष रूप में है। यदि तिविहार उपवास किया हो तो उसे पानी पीने की छूट होने से बढ़ा हुआ आहार गुरु की आज्ञा से खाकर पानी पी सकता है, परंतु जिसने चउव्विहार 1. वर्तमान में आयंबिल में कई चटपटी वस्तुएँ स्वाद के लिए बनाने लगी है। जो आयंबिल के फल को घटा रही है।
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