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एकाशन-एकलठाणा पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ समय ज्ञात हो जाय तो आधा.खा लिया हो, वही रुक जाय; शेष भोजन पूर्ण समय होने पर ही करे। यदि अपूर्ण समय जानने के बाद भी भोजन करता है तो उसका वह पच्चक्खाण भंग हो जाता है। दिसामोहेणं दिशाओं का भ्रम हो जाने से पूर्व को पश्चिमदिशा समझकर अपूर्ण समय में भी भोजन कर लेता है तो इस आगार के होने से पच्चक्खाण भंग नहीं होता। यदि भ्रांति मिट जाय और सही समय मालूम हो जाय तो पहले की तरह वहीं रुक जाय। यदि वह भोजन करता ही चला जाता है तो उसका पच्चक्खाण खंडित हो जाता है। साहुवयेणं-उग्घाड़ा पौरुषी इस प्रकार के साधु के कथन के आधार पर समय आने से पूर्व ही पोरसी पार ले तो उक्त आगार के कारण प्रत्याख्यानभंग नहीं होता। यानी साधु पोरसी-पच्चक्खाण के पूर्ण होने से कुछ पूर्व ही पोरसी पढ़ावे, उस समय बहुपडिपुण्णा पोरसी यों उच्चस्वर से आदेश मांगे, उसे सुनकर श्रावक विचार करे कि पोरसी पच्चक्खाण पारने का समय हो चुका है; इस भ्रम से भोजन कर ले तो उसका पच्चक्खाण भंग नहीं होता। मगर पता लग जाने के बाद वहीं भोजन करता रुक जाय, तब तो ठीक है, अगर न रुके तो अवश्य ही प्रत्याख्यानभंग का दोष लगता है। पोरसी का पच्चक्खाण करने के बाद तीव्र शूल आदि पीड़ा उत्पन्न हो जाय, पच्चक्खाण पूर्ण होने तक धैर्य न रहे और आर्त्तध्यानरौद्रध्यान होता हो, असमाधि पैदा होती हो तो सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं नामक आगार (छूट) के अनुसार प्रत्याख्यान पूर्ण होने के समय से पहले ही औषध, पथ्यादि ग्रहण कर लेने पर भी उसका पच्चक्खाण भंग नहीं होता अथवा किसी भयंकर व्याधि की शांति के लिए वैद्य आदि पोरसी आने से पहले ही भोजन करने के लिए जोर दें तो प्रत्याख्यानभंग नहीं होता। थोड़ा खाने के बाद उस बीमारी में कुछ राहत मालूम दे तो समाधि (शांति) होने पर उसका कारण जानने के बाद भोजन करता हुआ रुक जाय। साड्ढपोरिसी अर्थात् डेढ़पोरसी का पच्चक्खाण के पाठ भी पोरसी पच्चक्खाण के समान है, फर्क सिर्फ इतना ही है कि पोरिसी के स्थान में साड्डपोरिसी बोले।
अब पुरिमड्ड पच्चक्खाण का पाठ कहते हैं
सूरे उग्गए पुरिमई पच्चक्खाइ, चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइम, अणत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, | पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं सव्यसमाहिवत्तिआगारेणं योसिरड़।
पुरिमल (पुरिमार्द्ध) का अर्थ है-पूर्व च तदधं च पूर्वार्द्धम् यानी दिन के पहले आधे भाग (दो प्रहर) तक का प्रत्याख्यान (नियम)। प्राकृत में इसका रूप पुरिमड्ड बनता है। इसमें सात आगार हैं-छह आगा जा चुका है। सातवां आगार महत्तरागारेणं है, जिसका अर्थ है-जो पच्चक्खाण अंगीकार किया है, उससे अधिक कर्मनिर्जरा रूप महालाभ का कोई कारण आ जाय तो पच्चक्खाण का समय आने से पूर्व भी आहा प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। जैसे कोई साधु बीमार हो अथवा उस पर या संघ पर कोई संकट आ गया हो, अथवा चैत्य, मंदिर या संघ आदि का कोई खास काम हो, जो दूसरे से या दूसरे समय में नहीं हो सकता हो, इत्यादि महत्त्वपूर्ण (महत्तर) कारणों को लेकर महत्तरागारेणं आगार के अनुसार समय पूरा होने से पहले भी पच्चक्खाण पारा (पूर्ण किया) जा सकता है। यह आगार नौकारसी, पोरसी आदि प्रत्याख्यानों में इसलिए नहीं बताया गया है कि ये प्रत्याख्यान तो बहुत थोड़े समय तक के हैं, जबकि इसका समय लंबा है। अब एकासन (एकाशन) पच्चक्खाण का वर्णन करते हैं। इसमें भी आठ आगार है। इसका सूत्रपाठ इस प्रकार है
एकासणं पच्चक्खाइ, चउबिहंपि, तिविहंपि वा आहारं असणं, पाणं खाइमं साइमं, अण्णत्थणागाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारिआगारेणं, आउंटणपसारेणं, गुरु-अब्भुट्ठाणेणं, पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं, सव्यसमाहियत्तिआगारेणं योसिरह।
___ मैं एकासन का पच्चक्खाण करता हूं। एकासन (एकाशन) का अर्थ है-एक ही समय आहार करना अथवा एक ही समय आसन पर या आसन से गुदा का भाग चलायमान न हो, इस तरह बैठे-बैठे आहार करना। एकाशन तिविहार होता है तो आहार करने के बाद भी पानी लिया जा सकता है, किन्तु चउविहार हो तो आहार के समय ही पानी लिया जा सकता है, बाद में नहीं। इसमें उक्त आठ आगारों में से पहले के दो और अंतिम दो आगारों का अर्थ पहले बताया जा चुका है। बीच के चार आगारों का स्वरूप बताते हैं-सागारिआगारेणं जो आगार के सहित हो, उसे सागारिक कहते
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