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'नमुक्कारसहिय' (नौकारसी) पोरसी पच्चक्खाण के आगारों की व्याख्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ भी शुद्ध हो सकता है। ३. गुरु प्रत्याख्यानविधि से अनभिज्ञ हो; किन्तु शिष्य अभिज्ञ हो, यह तीसरा अशुद्ध-शुद्ध भंग है यह भंग भी विज्ञ गुरु के योग के अभाव में गुरु के प्रति बहुमान होने से गुरु के बदले साक्षी रूप में पिता, चाचा, मामा, बड़े भाई आदि को मानकर प्रत्याख्यान करे तो पूर्ववत् शुद्ध माना जा सकता है । ४. किन्तु जहां गुरु भी | प्रत्याख्यान विधि से अनभिज्ञ हो और शिष्य भी विवेकहीन हो, वहां दोनों अशुद्ध होने से चौथा भंग अशुद्ध ही है।
मूलगुण का प्रत्याख्यान प्रायः जीवनपर्यंत का होता है; जब कि उत्तरगुण का प्रत्याख्यान प्रायः प्रतिदिन उपयोगी | रहता है । उत्तरगुणप्रत्याख्यान के भी दो प्रकार है - संकेतप्रत्याख्यान और अद्धाप्रत्याख्यान । संकेत - प्रत्याख्यान वह है, | जिसमें श्रावक पोरसी आदि का प्रत्याख्यान करके बाहर खेत आदि पर गया हो या घर पर रहा हो, परंतु भोजन मिलने | से पहले तक वह प्रत्याख्यान किये बिना न रहे; इस दृष्टि से मुट्ठी, गांठ या अंगूठे आदि खोलने के संकेत से ही अपना | प्रत्याख्यान पूर्ण कर लेता है। यानी वह निम्नोक्त संकेत रूप में प्रत्याख्यान इस प्रकार करता है कि जब तक मैं अंगूठे, मुट्ठी या गांठ को न खोलूं अथवा घर में प्रवेश न करूं, जब तक पसीने की बूंदे न सूख जांय, तब तक इतने श्वासोच्छ्वास पूरे न हो, पानी से भीगी चारपाई जब तक सूख न जाय अथवा जब तक इसमें से बूंदे टपकनी बंद न हो जाय अथवा जब तक दीपक न बुझ जाय, तब तक में भोजन नहीं करूंगा। कहा भी है- अंगूठा, मुट्ठी, गांठ, घर, पसीना, श्वासोच्छ्वास, बिन्दु, दीपक आदि के संकेत की अपेक्षा से किये जाने वाले प्रत्याख्यान को अनंतज्ञानी धीरपुरुषों ने संकेत - प्रत्याख्यान कहा है। अद्धापच्चक्खाण उसे कहते हैं जिसमें काल की मर्यादा -सीमा हो । वह दस प्रकार का है। वे दस प्रकार ये हैं - १. नवकार - सहित नौकारसी, २. पोरसी, ३. पुरिमड्ड (पूर्वार्द्ध), ४. एकासण, ५. एकलठाणा, ६. आयंबिल, ७. उपवास, ८. दिवसचरिम अथवा भवचरिम, ९. अभिग्रह और १०. निविग्गई या विग्गइय (विकृतिक) - संबंधी। ये दस कालप्रत्याख्यान है। (आ. नि. १६११ )
यहां शंका होती है कि एकासण आदि प्रत्याख्यान में तो स्पष्ट रूप से काल की कोई मर्यादा नहीं मालूम होती, | फिर उसे कालप्रत्याख्यान क्यों कहा गया ? इसका समाधान यों देते हैं कि यह ठीक है कि एकासन के साथ कालमर्यादा की आवश्यकता नहीं है, परंतु पूर्वाचार्यों द्वारा इसकी भी कालमर्यादा (सीमा) बांधी है और एकासन जैसे प्रत्याख्यान अद्धाप्रत्याख्यान के साथ किये जाते हैं, इसलिए वह भी अद्धा प्रत्याख्यान कहलाता है। प्रत्याख्यान आगारसहित कराना चाहिए, अन्यथा वह भंग हो जाता है । और प्रत्याख्यान का भंग होना या करना बहुत बड़ा दोष है । इसलिए महर्षियों ने कहा है 'व्रत - प्रत्याख्यानभंग हो जाने से बहुत बड़ा दोष लगता है, जबकि जरा से भी प्रत्याख्यान (नियम) का पालन करने में गुण है। धर्मकार्य में लाभ-हानि का विवेक करना बहुत आवश्यक है। इसके लिए प्रत्याख्यान के साथ कुछ आगार बताये जाते हैं। (पंचा. ५- १२) आगार का अर्थ है - प्रत्याख्यान भंग न हो, इसलिए व्रत, नियम या प्रत्याख्यान | लेते समय उसके साथ रखी हुई मर्यादा, छूट, ( रियायत या अपवाद ) । ' किस-किस प्रत्याख्यान में कितने-कितने और कौन-कौन से आगार है? इसके लिए वे क्रमशः बताते हैं- नमस्कार - उच्चारणपूर्वक पारने योग्य मुहूर्तकाल - प्रमाण | नौकारसी प्रत्याख्यान में दो आगार होते हैं, जिनके बारे में हम यथावसर आगे कहेंगे। यहां एक शंका होती है कि नौकारसी पच्चक्खाण में निश्चित रूप से कालमर्यादा मालूम नहीं होती, इसलिए इसे संकेतप्रत्याख्यान क्यों न कहा | जाय? इसका समाधान यों करते हैं कि यह बात यथार्थ नहीं है। यहां नमुक्कारसहियं शब्द में नमुक्कार शब्द के साथ सहियं शब्द जुड़ा हुआ है, सहियं का अर्थ है - सहित । अतः सहियं शब्द मुहूर्तकालसहित का द्योतक है । फिर सहियं शब्द विशेषण है । और विशेषण से विशेष्य का बोध होता है। अतः 'सहियं' शब्द से मुहूर्तकालसहित अर्थ निकलता है। यहां फिर प्रश्न उठाया जाता है कि यहां मुहूर्त शब्द तो है नहीं, फिर वह विशेष्य कैसे हो सकता है? इसका उत्तर देते हैं कि शास्त्र में इसे काल-पच्चक्खाण में गिना है और प्रहर आदि काल वाले पोरसी आदि पच्चक्खाण तो आगे अलग से हम कहेंगे, इसलिए उसके पहले यह पच्चक्खाण मुहूर्त -प्रमाण का माना जाता है, इसलिए नमुक्कार सहित | पच्चक्खाण में मुहूर्त-व - काल है, यह समझ लेना चाहिए। फिर शंका की जाती है कि इसका काल एक मुहूर्त के बदले दो मुहूर्त का क्यों नहीं रखा गया? इसका समाधान यह है कि नौकारसी में केवल दो ही आगारों की छूट रखी है, जबकि | पोरसी में छह आगार रखे हैं। नमुक्कारसहियं में दो आगार रखने से उसका अल्प-फल मिलता है, क्योंकि एक मुहूर्त
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