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प्रत्याख्यान की व्याख्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ को नमाती है। वैसे स्तन अथवा छाती को नमाकर काउस्सग्ग करना भी स्तनदोष है। ११. बैलगाडी जैसे पीछे के दोनों पहियों के सहारे अधर खड़ी रहती है, वैसे ही पीछे की दोनों एड़ियाँ या आगे के दोनों अंगूठे इकट्ठे करके अथवा दोनों अलग-अलग रखकर अविधि से काउस्सग्ग करना वह शकटोलिका नामक दोष है। १२. साध्वी के समान मस्तक के सिवाय बाकी के पूरे शरीर को कायोत्सर्ग में वस्त्र से ढक लेना, संयतीदोष है। १३. घोड़े की लगाम के समान चरवले या ओघे के गुच्छे को पकड़कर कायोत्सर्ग में खड़े रहना खलीनदोष है। अन्य आचार्य कहते हैं कि लगाम से पीड़ित घोड़े के समान कायोत्सर्ग में बार-बार सिर हिलाना या सिर को ऊपर-नीचे करना, खलीनदोष है। १४. कायोत्सर्ग में कौएँ के समान आंखों को इधर-उधर नचाना या अलग-अलग दिशाओं में देखना, वायसदोष है। १५.
जू होने के भय से चोलपट्टे को इकट्ठा करके कपित्थफल की तरह मुट्ठी में पकड़कर काउस्सग्ग करना कपित्थ-दोष है; | इसी तरह मुट्ठी बंद करके काउस्सग्ग करने से भी वही दोष लगता है। १६. भूतग्रस्त की तरह काउस्सग्ग में बार-बार सिर धुनना, शीर्षोत्कंपित दोष है। १७. गूंगे के समान समझ में न आये, ऐसे अव्यक्त अस्पष्ट शब्द कायोत्सर्ग में बोलना मूकदोष है। १८. लोगस्स की संख्या गिनने के लिए पौरों पर अंगुलि चलाते हुए काउस्सग्ग करना अंगुलीदोष है। १९. दूसरी ओर आंखें फिराने के लिए आंखों की भौहों को नचाते-घुमाते हुए काउस्सग करना भ्रूदोष है। २०. मदिरा उबालते समय होने वाले बुड़बुड़ शब्द की तरह बुदबुदाते हुए काउस्सग्ग करना वारुणीदोष है; दूसरे आचार्य का कहना है, शराब पीकर मतवाले बने हुए के समान इधर-उधर झूमते हुए काउस्सग्ग करना वारुणीदोष है और २१. जैसे स्वाध्याय करते समय दोनों होठ हिलते हैं, वैसे ही होठ हिलाते हुए काउस्सग्ग करना, अनुप्रेक्षादोष कहलाता है। 'संक्षेप में कायोत्सर्ग के दोषों के नाम इस प्रकार है-१. घोटक. २. लता. ३. स्तंभ. ४. कडय. ५. माल. ६. शब ८. निगड. ९. लंबोत्तर. १०. स्तन, ११. ऊर्वी, १२. संयती, १३. खलीन, १४. वायस, १५. कपित्थ, १६. शीर्षोत्कंपित, १७. मूक, १८. अंगलि, १९. भ्र. २०. वारुणी और २१. प्रेक्षा। कई आचार्य इनके अलावा कछ दोष और बताते हैंजैसे कायोत्सर्ग के समय थूकना, शरीर के अंगों को छूना, खुजलाना, प्रायः चंचलता रखना, सूत्रोक्त विधि के पालन में कमी रखना, वयसीमा की उपेक्षा करना, काल-मर्यादा का उल्लंघन करना, आसक्तिमय व्यग्र चित्त रखना, लोभवश चित्त को चंचल करना, पापकार्य में उद्यम करना, कार्याकार्य में विमूढ़ बन जाना, पट्टे या चौकी पर खड़े होकर काउस्सग्ग करना; इत्यादि दोष है। काउस्सग्ग का फल भी निर्जरा ही है। अतः कहा है-कायोत्सर्ग में विधिपूर्वक खड़े रहने से शरीर के अंगोपांग ज्यों-ज्यों टूटते-दुखते हैं, त्यों-त्यों सुविहित आत्मा के आठ प्रकार के कर्मसमूह टूटते जाते हैं। (आ. नि. १६४८) कायोत्सर्ग के सूत्रों का अर्थ और व्याख्या हम पहले कर चुके हैं।
प्रत्याख्यान - प्रति+आ+ख्यान, इन तीन शब्दों से प्रत्याख्यान शब्द बना है। प्रति का अर्थ है-प्रतिकूल प्रवृत्ति, |आ मर्यादापूर्वक और ख्यान-कथन करना; अर्थात् अनादिकाल से विभावदशा में रहे हुए आत्मा के द्वारा वर्तमान |स्वभाव से प्रतिकूल मर्यादाओं का त्याग करके अनुकूल मर्यादाओं का स्वीकार करना, प्रत्याख्यान अथवा पच्चक्खाण कहलाता है। इसके दो भेद हैं-मूलगुण रूप और उत्तरगुण रूप। साधुओं के लिए पांच महाव्रत और श्रावकों के लिए ५ अणुव्रत मूलगुण है। साधुओं के लिए पिंडविशुद्धि आदि उत्तरगुण हैं और श्रावकों के लिए गुणव्रत और शिक्षाव्रत उत्तरगुण है। मूलगुण में हिंसा आदि पांच पापों के सर्वतः और देशतः त्याग रूप प्रत्याख्यान (नियम) होते हैं, जबकि उत्तरगुण में साधुओं के लिए पिंडविशुद्धि आदि श्रावकों के लिए दिग्वतादि के नियम प्रतिपक्षभाव के त्याग के रूप में होते हैं। जिसने पहले उचित समय पर अपने आप प्रत्याख्यान (नियम) ग्रहण किये हों, ऐसे प्रत्याख्यान के स्वरूप का जानकार श्रावक प्रत्याख्यान के पूर्व विशेषज्ञ गुरु के समक्ष सविनय उपयोग पूर्वक चित्त की एकाग्रता के साथ प्रत्याख्यान के लिए जाता है और वे जिस प्रत्याख्यान का पाठ बोलते हैं, तदनुसार स्वयं भी उसके अर्थ पर चिंतन करते हुए उस प्रत्याख्यान का स्वीकार करे। इस संबंध में प्रत्याख्यान की चतुभंगी दृष्टव्य है-१. स्वयं भी प्रत्याख्यान का अर्थ जाने
और कराने वाला गुरु भी जाने, पहला शुद्ध भंग है। २. प्रत्याख्यानदाता गुरु जाने, परंतु लेने वाला न जाने, यह दूसरा शुद्धाशुद्ध भंग है। यदि प्रत्याख्यान कराते समय गुरु लेने वाले को संक्षेप में समझाकर प्रत्याख्यान कराये तो यह अंग 1. चैत्यवंदन भाष्य में १६ दोष बताये हैं।
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